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  स्वप्न

पता नहीं कब
आ बैठता है पास
उदास रातों में

करवटों से घिसते रहते हैं
बदन के रोंये
सिरहाने पड़ा रहता है
एक भटका हुआ बादल

नंगे पाँव दौड़ता
कोई बिछुड़ा हुआ
अपना आया हो जैसे
उम्र को खदेड़ता हुआ
गले मिलने

जैसे बगीचे में
खड़ी मूर्ति पर बैठा कबूतर
उड़ पड़ेगा फड़फड़ाकर
मूर्ति में हल्की सी
हलचल पर

कैसे उसे कोई याद करे
कोई चिट्ठी भी नहीं उसकी
एक बार जाने के बाद.

१ जून २०१७

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