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बाबूजी के बाद

घर का दरवाज़ा
खुलते ही
ठिठकते कदम,
रात गहराई
पी भी ली
थोड़ी ज़्यदा,
बाबूजी की डाँट
फिर बहू से कहना
''मत देना इसे खाना,
निकाल दे घर से बाहर''
व खुद ही खाँसते-खाँसते
साँकल भी चढ़ा देना।
तिरछी निगाहों से
देख भी जाना, कि
खाकर सोया भी हूँ,
सुबह रूठा-सा चेहरा बनाना
और बड़बड़ाते रहना,
बच्चा-सा बना
देता था मुझे।
आज, खाली कुरसी,
खाली कमरा,
देखते ही बरस पड़े हैं
मेरे नयन।
बड़ा हो गया हूँ मैं,
महसूस कर सकता हूँ
उनकी छटपटाहट जब
आज मेरा नन्हा बेटा
काग़ज़ को मरोड़
सिगरेट का कश भरता है
और कोकाकोला
गिलास में भरकर
चियर्स कहता है
तोतले शब्दों में।

24 अप्रैल 2007

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