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सिर्फ़ तुम हो

 

सपना

ऐ सुनो
मैंने इक सपना
देखा था बरसों पहले
इक घर,
घर में नन्हें चिरौंटे,
जिन्हें पाला,
धूप, आँधी से बचाया,
उड़ना सिखाया,
पंखों का पसार
बड़ा बनाया,
उड़ गए चिरौंटे,
मिले इक दिन
मेरी बूढ़ी उड़ान के
आख़िरी सफ़र में,
अहसास दिलाने लगे,
मेरे घरोंदे का
जिसमें शायद आधुनिकता
से परे सब कुछ था
प्यार, समर्पण, स्नेह, पर शायद
ये सब छल था उनके
लिए, क्योंकि उड़ान
उनकी ऊँची थी।
जीवन नीरस, बेहद नीरस लगा
शायद यही सार था कि
हाथ खुद-ब-खुद सिर पकड़ बैठे
सदियों के दुराव को देख।

9 नवंबर 2006

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