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वर्ष दो हजार दस
वो बत्ती वो रातें
संवाद
सच
हादसे– (मुंबई और मंगलौर के बीच मन)

 

भूलना, भूलना और फिर भूलना

कितना अच्छा होता है भूल जाना
वो रातें जब भरपेट खाना नहीं मिला था
सुबहें जो सर्दी के ठिठुरे कोहरे से दबी होकर भी
भागती थीं
चाय की भाप से मुलाकात किए बिना

दोपहरिया इसी चिंता में कि
शाम का पहिया
जाने आज किस दिशा में घूमेगा

अच्छा ही होता है भूल जाना
फरेब के वो सारे पल
जब पूरब को बताया गया था पश्चिम
जब मंदिर के बाहर छोड़े जूते
न मिलने पर वापिस
सोचा था
शायद यह थी ईश्वर की मर्जी

अच्छा ही होता है भूल जाना
कि इम्तिहान दर इम्तिहान
यात्रा कभी खत्म नहीं होगी

इतना सामान समेटा
यहाँ से वहाँ से
चार सोने के कंगन दो बुंदे, बीसों साड़ियाँ
इन सब पर तब भी भारी थी
मांग पर पड़ी लाल बारीक रेखा

अच्छा होता है भूल जाना
कि यायवरी, हैरानी, परेशानियों के बीच
मुस्कुराहटें भी आती हैं मेहमानों की तरह

कि शाम के चुप क्षणों में
सफेद होते बाल
यह कहने के लिए अक्सर होते हैं आतुर
कि नहीं हुई है उनकी उम्र अभी ढल-ढल जाने की

अच्छा ही होता है
यह भी भूल जाना कि
बात सिर्फ इतनी है कि
ये साँसों का ठेला ही तो है
क्या अपना, क्या पराया
क्या मेरा, क्या तुम्हारा

हाँ, जब तक गठरी है काँधे पे अपने
तब तक तो अच्छा ही है
भूले रहना
भूले-भूले रहना

१७ जनवरी २०११

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