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दो कबूतर
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छोटी कविताओं में-
पाँच छोटी कविताएँ

 

दो कबूतर

आज फिर,
कई दिनों के बाद
अच्छा लगा
उन दोनों कबूतरों का
कमरे मे आना
जिन पर
लिखी थी चंद रोज़ पहले
मेने एक नन्ही कविता !
मगर आज
नहीं थी पहले-सी गूटर-गूँ
एक अंतहीन खामोशी थी
उनके ओर मेरे बीच
मैं उन्हे देख मुस्कुराया
प्रतिक्रिया स्वरूप,
उन्होने अभिवादन मे
पंखों को फड़फड़ाया
आंखो ही आँखों मे
एक-दूजे का हाल समझाया
कितना सहज ,
इन परिंदो को समझाना ,
वरना उम्र बीत जाती है इंसानों को समझाने में !

२ जनवरी २०११

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