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तपती छाँह


तपती छाँव
पनघट उदास
कहाँ वे गाँव ?


झींकना -रोना
अब तो रह गया
रिश्तों का ढोना


धूप भी छाँव
बन गई हमको
तुम्हारे गाँव


आकुल मन
भर-भर आता ज्यों
यादों के घन


भीगती शाम
साथ-साथ लिखे थे
पेड़ों पे नाम


नदी समीप
मन बैठा तैराता
सुधि के दीप


फूली सरसों
खेतों में देखे बिन
बीते बरसों


दीजिए बता-
भीगी हुई आँखों को
हँसी का पता

१३ मई २०१३

 

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