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अनुभूति में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की रचनाएँ-


कविताओं में-
अंधेरे का मुसाफ़िर
एक सूनी नाव
तुम्हारे लिए
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट
रात में वर्षा
व्यंग्य मत बोलो
विवशता
शुभकामनाएँ
सब कुछ कह लेने के बाद
सुरों के सहारे

संकलन में-
वसंती हवा- आए महंत वसंत
गाँव में अलाव - जाड़े की धूप
पिता की तस्वीर- दिवंगत पिता के प्रति
नया साल- शुभकामनाएँ

क्षणिकाओं में
वसंत समर्पण आश्रय

लंबी कविताओं में-
कुआनो नदी

  कुआनो नदी

फिर बाढ़ आ गई होगी उस नदी में
पाक का फुटहिया बाजार बह गया होगा,
पेड़ की शाखों में बाँधे खटोले पर
बैठे होंगे बच्चे किसी काछी के
और नीचे कीचड़ में खड़े होंगे चौपाए
पूँछ से मक्खियाँ उड़ाते।
मेरी निगाह कुछ कमजोर हो गई है।
दिल्ली की सड़के दीखती हैं जैसे कुआनो नदी-
नदी जो एक कुएँ से निकली है
जिसे मैं अपने बचपन में
कभी खोज निकालने का उत्साह रखता था।
कुआनो नदी-
सँकरी, नीली, शांत
अभी भी बहती रहती है रात-दिन मेरे सामने
अदेखे को पाने का उत्साह कुरेदती हुई।
बरसात में अपना पाट चौगुना करती
आसपास के गाँवों को डुबाती
शहर की ऊँची सड़क के
दोनों ओर की नीची ज़मीन को
हहराते नाले-सा बनाती।
अभी भी मैं एक लंबी शहतीर
अपने घर की दालान से सड़क तक रखकर
वह हरहराता जल पारकर जाता हूँ
जबकि मेरे पिता जाँघ तक धोती उठाए
पानी को हलकोरते आते हैं
कलल-कल, कलल-कल
ज्यों ही आने लगती है अँधेरे में आवाज़
मैं लालटेन लेकर बाहर दौड़ता हूँ
शायद यह रोशनी काम आ जाए।

मछलियाँ, जोंक, पनियल सॉप
सबके अलग-अलग ढंग हैं पानी में चलने के
आज आज भी उनका गवाह हूँ
बड़े ध्यान से मैंने देखा है उन्हें।
पीले-पीले मेढ़कों की छपाक से ही
मैं बता सकता हूँ पानी यहाँ कितना गहरा है
और बरसात खत्म होने पर
इसे सूखने में कितने दिन लगेंगे।
बादल झमाझम बरस रहे हैं
या बरसकर निकल गए हैं
या बरसने के लिए घिघया रहे हैं
कुआनो नदी वैसी ही पसरी रहती है
हर समय मेरी आँखों के सामने।

बहुत गरीब जिला है वह, बस्ती-
जहाँ मैंने इसे पहली बार देखा था।
मेरे नाना इस नदी में कूद पड़े थे
और निकाल लिए गए थे
जिंदगी से ऊबकर मर नहीं सके।
तट पर न रेत थी न सीपियाँ
सख्त कंकरीली ज़मीन थी काई लगी,
कहीं-कहीं दलदल था, झाड़ियाँ थीं दूर तक
जिनमें सोते कुलबुलाते रहते थे
और चिड़ियाँ एक टहनी से दूसरी टहनी पर
शोर करती झूलती रहती थीं।

बहुत सँभलकर मैं अब भी जाता हूँ
नरसल की हरी छड़ियाँ काटकर लाता हूँ
उनसे लिखने की कलमें बनाता हूँ
दूसरे उनसे पिपिहरी भी बना लेते हैं
जिसे बड़े शान से बाँसूरी कहते हैं,
उन पिपिहरियों की आवाज़
आज भी सुनाई देती है मुझे
दिल्ली की इन सड़कों पर।

यह नदी मुर्दघाट के लिए मशहूर है।
कुआनों जाने का मतलब
किसी को फूँकने जाना है।
मेरे पिता को हर शव-यात्रा में जाने का शौक था।
अकसर वह आधी-आधी रात लौटते
और लकड़ियाँ गीली होने की शिकायत करते।
माँ से कहते- ‘कुछ लोग अभागे होते हैं
उनकी चिता ठीक से नहीं जलती’
और हर अभागे की यही आखिरी कहानी
मैं आज भी सुनता हूँ।

इस नदी के किनारे
कोई मेला नहीं लगता।
न ही पूर्णिमा-स्नान होते हैं।
एक मंदिर है
जो बहुत कम खुलता है
जिसकी सीढ़ियाँ
अहदियों के बैठने के काम आती हैं।
मैं अकसर वहाँ बैठा रहता हूँ
और दालान के कोने में
टूटा, जाला लगा चमड़े का
एक बहुत पुराना बड़ा ढोल टँगा देखता रहता हूँ

जो अब बजता नहीं
और तेज हवा में खड़खड़ाते विशाल झीने पीपल के पेड़ से
दैवी स्पर्श की तरह
किसी जालीदार पीले पत्ते के अपने ऊपर
गिरने की प्रतीक्षा करता रहता हूँ।
पुल पर-
दही के मटके लिए एक-एक कर अहीरों को
जाते देखता हूँ
वे सब शहर में दही बेचकर गाँव लौटते होते हैं
कभी-कभी किसी के सिर पर लकड़ियों
के बोझ भी होते हैं
या गठरियाँ, खरीदे सौदे-सुलुफ की
उनकी परछाइयाँ शांत हरे जल पर अच्छी लगती है।

तट से लगा हुआ एक बाँध है
जिस पर ऊँचे-ऊँचे छायादार दरख्त हैं।
जिनके नीचे से सड़क जाती है
कई तीखे घुमाव लेती
सड़क पर अधिकतर बैलगाड़ियाँ चलती हैं
कभी-कभी कोई एक्का भी
परदा बाँधे, औरतों-बच्चों को बैठाए डगमगाता,
और फिर एक सायकिल धूल से भरी हुई,
भेड़-बकरियों के गल्ले,
नए खरीदे रँगे सींगों वाले बैल घंटियाँ बजाते
जिनकी आवाज धीरे-धीरे दूर होती जाती है।
पीला-पीला सूरज आसमान में डूबता है-
और तभी एक तेज नारी-कंठ सुनाई देता है-
‘लाली हो लाली’
सड़क पर, पुल पर, पेड़ों पर अँधेरा छा जाता है।
मेरी निगाह कुछ कमजोर हो गई है।

इस नदी का
इस शहर से कोई संबंध नहीं है।
फिर भी नदी शहर की है।
इसको कोई पियरी नहीं चढ़ाता
न आदमी रामनामी डाले
सुबह तड़के भागते दिखाई देते हैं,
न अधेड़ औरतें ठाकुर जी का
सिंहासन लिए बतियाती जाती हैं।
दूध वाले पानी मिलाने
या प्राइमरी स्कूल के शिक्षक निवृत्त होने
अवश्य यहाँ रुकते हैं
और बंदर शाखों से उतरकर
इसके किनारे बैठे रहते हैं।

धूप में शहर की गंदगी
यहाँ साफ होती है
धोबी कपड़े धोते हैं,
आवारा औरतें सिगरेट पीती
गुनगुनाती-लिपटती
अपने ग्राहकों के साथ घूमती हैं।
रात में अकसर कत्ल होते हैं
लाशें कई-कई दिनों की पाई जाती हैं।
किसी स्त्री का फेंका हुआ
नया जन्मा बच्चा
कभी जिंदा,कभी मरा मिल जाता है।
शाम होते ही पुलिस
भारी टार्चों से रोशनी फेंकती
पुल पर गश्त लगाती है
और सियार हुआँ-हुआँ करते हैं।
चमगादड़ों के उड़ने से
शाखें खड़खड़ाती हैं
और किसी अकेली चिता की
आखिरी लपटें, बड़े-बड़े दहकते
अंगारों की आँखों से देखती हैं,
ऊपर आसमान में तारे होते हैं
नीच नदी चुपचाप बहती जाती है।

यह नदी कगारे नहीं काटती
अपना पाट नहीं बदलती
जैसे बहती थी वैसे बहती है।
आज भी इसके किनारों के गाँवों में
सिंघाड़ों के तालों में
बड़े-बड़े मटके औंधाए
मैं खटिकों को नंग-धडंग पानी में घुसे
सिंघाड़े तोड़ते देखता हूँ।
और खटकिनों को तार-तार कपड़ों में
अपना पुष्ट युवा शरीर लिए
घर-घर हँसी और सिंघाड़े बेचते हुए,
लोहारों की धौंकनी के सामने
घोड़े-सा मुँह लटकाए
खुरपी, कुदाल और नाल बनाते हुए,
बढ़इयों को ऐनक का शीशा
सूत से कान में बाँधे
बँसखट के पाए गढ़ते हुए,
और किसी बूढ़े फेरी वाले को
बिसातखाने का सामान गले में लटकाए
हर घर के सामने कमर झुकाए
झिक-झिक करते हुए।

बरसात का पानी
आज भी गाँवों में भरता है
बिना जगत के कुओं के भीतर चला जाता है।
आदमी और चौपाए
खरवा से घायल पैर की ऊँगलियाँ
और खुल लिए लँगड़ाते चलते हैं,
सूअर लोटते हैं,
पानी में बैठी औरतें खाना पकाती हैं
उनके चूल्हों में टीन की चादरे लगी होती हैं
नीचे पानी रहता है
ऊपर लकड़ियाँ धुआँ उगलती हैं
कभी-कभी लपट भी
जिससे अदहन खौल जाता है,
एक ओर कुत्ते हाँफते बैठे रहते हैं
और दूसरी ओर उनके बच्चे,
जिनकी आँखें अँधेरे में जलती
मिट्टी के तेल की ढिबरियों-सी दिखाई देती हैं।
ढिबरियाँ-
जो शाम को केवल घंटे-भर के लिए जलती हैं
फिर रात-भर अँधेरा छाया रहता है,
यह अँधेरा हर दूसरे महीने
भरों के घरों में आग लगने पर टूटता है
फूस के घर जलकर राख हो जाते हैं।
भर-जो मजूरी पूरी न पड़ने पर चोरी करते हैं
और एक-दूसरे को दुश्मन मान
उनका घर जलाते रहते हैं
उनकी औरतें रात-दिन आपस में
झगड़ती हैं, गालियाँ देती हैं
अघुआती हैं, बेसुरी आवाज़ में रोती हैं
और बच्चे नाक बहाते नंगे इधर-उधर
हर खुले दरवाज़े की ताक में घूमते हैं।
और इन सबके बीच
कुआनो निर्लिप्त भाव से बहती रहती है
अपना पाट नहीं बदलती।
इस नदी ने मुझे अंधा कर दिया है।
मुझे् कुछ दिखाई नहीं देता
अपनी ही आकृति क्रूर-कठोर लगती है।
एक बंजर भूमि में
बढ़े हुए नाखून लिए मैं खड़ा हूँ
जैसे उनके ही नई फसलें उगा लूँगा
जैसे उन्हीं के सहारे
नहरें खींचता
मैं उन खेतों में ले जाऊँगा
जहाँ काँसे की चूड़ियाँ खनकाती
औरतें मुँह अँधेरे दौरियाँ चलाती हैं
निराई और बोआई के गीत गाती हैं
और
कटी हुई फसलों के बीच
पीली धोती अनवासे
एक साँवली लड़की दौड़ती हुई दिखाई देती है।

नाखून दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं
और
ज़मीन उसी अनुपात से बंजर होती जा रही है
और नदी हर दिल मे उसी रफ्तार से शांत
हर विवशता का उपहास-सा करती।
अभी एक डाँगर बहता हुआ निकल गया
अभी एक आदमी बहता हुआ चला जाएगा
जिसकी लाश पर कौए बैठे होंगे
जिन्हें मैं अकसर दिल्ली की इन सड़कों पर
उड़ता हुआ देखता हूँ
शायद ये हंस हों!
मेरी निगाह कुछ कमजोर हो गई है।
कुआनो नदी
सँकरी, नीली, शांत
जाने कब होगी
अक्षितिज, लाल, उद्याम।
बहुत गरीब है यह धरती
जहाँ यह बहती है।

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