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अनुभूति में संतोष कुमार सिंह की रचनाएँ —

नए गीत
चलें यहाँ से दूर
जग यूँ दीख रहा
फिर कैसे दूरी हो पाए
मन जुही सा
रूठ गई मुस्कान

गीतों में
अपना छोटा गाँव रे
इस देश को उबारें
ऐसी हवा चले
गाँव की यादें
जा रहा था एक दिन
धरती स्वर्ग दिखाई दे
नारी जागरण गीत
मीत मेरे
ये बादल क्यों रूठे हैं
श्रमिक-शक्ति

सोचते ही सोचते

शिशु गीतों में-
डॉक्टर बंदर
भालू
सूरज
हिरण

संकलन में
ममतामयी-माँ

  गाँव की यादें

जब से आया शहर पड़ी हैं, जैसे बेड़ी पाँव में।
राह देखती होंगी मेरी, सारी गलियाँ गाँव में।।

मुझे सुनाया करती दादी,
बातें कुछ बचपन की।
कुछ-कुछ मुझको याद अभी तक,
अपने नटखटपन की।।

अभी याद है उस माली को,
रोज़ छकाया करते।
तोड़ बाग़ से कच्ची अमियाँ,
छुप-छुप खाया करते।।

बस्ता लेकर पढ़ने जाते, एक पास के गाँव में।
जब से आया

बैठ मैंड़ पर देखा करता,
मैं बैलों का हल।
वर्षा होती फसल डूबती,
दिखता जल ही जल।।

चना-मटर के होरा कर-कर,
बड़े प्रेम से खाते।
खा रसखीर महेरी-मठ्ठा,
हम भारी इठलाते।।

खेला करते गुल्ली डंड़ा और कबड्डी गाँव में।
जब से आया

शकरकंद, आलू भी भूने,
हमने अघियाने में।
आता कितना स्वाद बैठकर,
बातें बतियाने में।।

अब टी. वी. से चिपके रहते,
कहाँ सजें चौपालें।
डैक बजावें, डिस्को नाचें,
बंदर जैसे हालें।।

भरी दुपहरी ढोला सुनते, इक पीपल की छाँव में।
जब से आया

भुना चबैना भड़भूजे से,
हर कोई था लाता।
गन्ना चूसें, कोल्हू पे जा,
गरम-गरम गुड़ खाता।।

घुस जाता तालाब नहाने,
कमल-फूल दल तोड़े।
लभेर बंसरी खेल-खेल,
हाथ, पैर, मुँह फोड़े।।

रात-रात भर रसिया सुनते और नौटंकी गाँव में।
जब से आया

भाभी के संग खेला करते,
होली डंडे वाली।
हो जातीं सब साफ़ गाँव की,
नाली कीचड़ वाली।।

बैठ पंक्ति में खाया करते,
हम पत्तल पर दावत।
जब भी मिलते लोग पूछते,
लल्लू क्यों ना आवत?

जी करता पर जा ना पाऊँ, अपने प्यारे गाँव में।।
जब से आया

कई साल हो गए शहर में,
बच्चे तीन हमारे।
नौटंकी, ढोला क्या होते,
पूछत रहें बिचारे।।

भागम-भागी आपा-धापी,
बना यंत्र-सा जीवन।
महँगाई ने कमर तोड़ दी,
छूमंतर अब यौवन।।

होगा नहीं प्रदूषण अब भी, अपने प्यारे गाँव में।
जब से आया

9 अक्तूबर 2006
 

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