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अनुभूति में मन दलाल की रचनाएँ-

गीतों में-
एक बंजारापन
कान्हा का हर रास अनय है
जीवन
तेरी सदा से सम्पदा है
प्रीत के तार लगाए

 

 

 

तेरी सदा से सम्पदा है

तेरी सदा से सम्पदा है
जितना आकाश
जितनी वसुधा है
तेरी छाया हैं पर्वत सारे
तेरे निकट ही सारे किनारे
नदिया का है तुझसे ही उद्भव
सागर बहे हैं तेरे सहारे
तू ही अनादि प्राण-सुधा है
तूने युगों तक सागर मथा है...
जितना आकाश जितनी वसुधा है ।

अकट अनय सा अद्वैत निरंजन
तू ही नव है तू ही चिरंतन
तू ही दिशा है, तू है नियामक
तुझसे हरण है तू ही निषेचन
तू ही नुपूर में पग सा समाये
तू ही तो सारे नाच नचाये
मेरी ध्वजा का लम्ब तू ही है
इस यात्रा में अवलंब तू ही है
तू ही तो ‘न’ की निषेधता है ..
जितना आकाश जितनी वसुधा है।

सपन सुहाने मेरे सिरहाने
लगे जब स्वयं तू ही बुवाने
जीवन सहज ही धन होता जाये
तेरा स्वतः ही ऋण होता जाये
तू आरम्भ है तू ही इति है
तू ही अडिग है तू ही गति है
हर क्षण, क्षण में गर्भित तू है
हर क्षण, मन में उपस्थित तू है
तू ही अकेला सर्वथा है...
जितना आकाश जितनी वसुधा है।

८ जुलाई २०१३

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