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तो फिर प्यार कहाँ है?

बहुत खुश थी वह
कि सब कितना प्यार करते है
कितना ख़याल रखते है
उसका
बाबूजी का चश्मा
जो अक्सर रख कर भूल जाते थे
या फिर उनकी कलम
सभी का ख़याल रखती थी
वो
पति को संभालना
सर दबाना, पैर दबाना
चाहे सारा दिन की कशमकश से थक गई हो
मगर
कभी मन भारी नहीं लगता था
बच्चों का प्यार तो भरपूर था
जैसे की भरा समुंदर
जेब खर्ची बच्चे माँ से पाते थे
हर ग़लती पर
माँ का आँचल बचाता था
उन्हें
वह पेड़ की छाल ही नज़र आती थी
जैसे की पेड़ कटने से पहले
हर मुसीबत
छाल को ही सहनी पड़ती है
मगर आज बरसों बाद
यह भरम भी टूट गया
जब
एक लंबी बिमारी ने
अपना जामा पहना दिया
और वह टूट कर बिखर गई
चारपाई पर
कुछ दिन लगा
कि सभी कितना प्यार करते है
मगर एक दिन
शीशे-सा मन टूट गया
आज वो समझी
यह प्यार नहीं था
वह सबकी ज़रूरत थी
हाँ शायद
इंसान की कीमत
उसके बस काम से है
और फ़िर
उसने जाना...
बेकार, बेरोज़गार, बीमार, लाचार इंसान
किसी काम का नहीं
तो फिर प्यार कहाँ है?

मगर लगता है
मन के किसी कोने में
प्यार अभी बाकी है
क्या घर के नौकर-सी बदतर है
औरत की ज़िंदगी
क्या उसे परेशान देख कर
घर की आँखें रोती नही
हाँ सबकुछ था पास
मगर विश्वास कहीं खो-सा गया था
कुछ न कर पाने पर
जब निराशा हावी हो जाती है
इंसान की समझ पर
पर्दा गिर जाता है
और
उसके लिए परेशान आँखे
शायद
उसे अहसास दिलाती रहती है
कि आज
जब कोई तुझे पुकारता नही
तो लगता है प्यार नही
और वह पूछती है खुद से

तो फिर प्यार कहाँ है

७ जनवरी २००८

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