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विचारों की शृंखला

विचारों की शृंखला
टूटती ही नहीं
एक आता है एक जाता है
दिन भर हावी रहते है
लड़ते रहते है
अपने ही वजूद से
और
विचारों का आना-जाना
नींद मे भी पीछा नही छोड़ता
रात भर स्वप्न में
पिघलते रहते है
और नींद खुलने पर
हावी हो जाता है एक नया विचार

पूरे दिन की कशमकश में
जीतता वही है
जो ताक़तवर होता है
वकीलों की तरह
झूठी सच्ची दलीलों की तरह

सरकारी वकील की तरह
आत्मा विरोध भी करती है
मगर सबूतों के अभाव में
दिन-भर की लड़ी हुई
थकीमाँदी निर्बल आत्मा से
झूठी बेबुनियाद दलीलें
जीत जाती हैं

जैसे बीमारी के कीटाणु
बीमार शरीर को ही
जल्दी शिकार बनाते हैं
और शरीर को सजा हो जाती है
मनोविकारों से पीड़ित रोगी
जो दिमाग़ का संतुलन खो बैठते है
खुद को पाते है...

शून्य में

७ जनवरी २००८

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