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घर में बैठे रहे
तेरी ज़िद
दो ग़ज़लें
धूल को चंदन
पेट भरते हैं
बागों में

बादल तितली धूप
मेरे घर के बाहर अक्सर
मौत ज़िंदगी पर भारी है
सिमटने की हकीकत

 

 

  मेरे घर के बाहर अक्सर

मेरे घर के बाहर अक्सर आ जाते हैं रिक्शे वाले,
दो पल रुक कर आपस में बतिया जाते हैं रिक्शे वाले।

जेठ माह की दोपहरी में जब कर्फ़्यू-सा लग जाता है,
अमलतास की छाया में सुस्ता जाते हैं रिक्शे वाले।

गंगा-पार, बदायूँ, छपरा, भागलपुर, और बर्दवान के,
कितने किस्से आपस में दोहरा जाते हैं रिक्शे वाले।

रिक्शा धोना, कुछ पल सोना, बीड़ी पीना, कपड़े सीना-
कितने सारे काम यहाँ निपटा जाते हैं रिक्शे वाले।

मिले सवारी तो झटपट पैसे तय कर चल पड़ते हैं,
वरना दो-दो घण्टे यहीं बिता जाते हैं रिक्शे वाले।

१८ अगस्त २००८

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