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उलझे उलझे अपने रिश्ते
ऊपर से सख़्तजान
तय सफ़र कुछ यों भी करना
देख सारे हिसाब
मुझमें इतने खोए आँसू
रौशनी का जब कभी आभास
वो धोखा दे गया

अंजुमन में--
अंधेरों में चमकता
कौन समझेगा
खुद से मिलकर
जो उजालों मे
तुम्हें झूठ से बहलाने में
सिर्फ और सिर्फ

हिसाब मत देना
 

  रौशनी का जब कभी आभास

रौशनी का जब कभी आभास मिलता है बहुत
तब दिया भी आँधियों के पास मिलता है बहुत

शायरी कविता गजल मुक्तक हुए सब फ़ेल हैं
चुटकलों से मंच को उल्लास मिलता है बहुत

देश की खातिर जिए जो देश की खातिर मरे
उनको मेरे देश में उपहास मिलता है बहुत

मौत की आहट सुनाई देती है चारों तरफ़
ज़िंदगी का अब कहाँ आभास मिलता है बहुत

मत कहो अब उनसे गुलशन हो रहा वीरान है
उल्लुओं के घर में अब मधुमास मिलता है बहुत

१ दिसंबर २००८

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