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अनुभूति में सत्येश भंडारी की
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अंधा बाँटे रेवड़ी
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"गाँधी का गुजरात" या "गुजरात का गाँधी"

संकलन में-
गाँव में अलाव-सर्द हवाओं के बीच
ज्योति पर्व-
क्यों कि आज दिवाली है

 

अंधा बाँटे रेवड़ी

पिछले दिनों की बात है,
रास्ते से गुजर रहा था,
एक जगह भीड़ लगी थी,
बीचोबीच एक आदमी
नज़र आ रहा था।
पास खड़े एक व्यक्ति से पूछा,
वो आदमी भीड़ में क्या,
भाषण झाड़ रहा है,
उसने कहा, 'नहीं,
रेवड़ियाँ बाँट रहा है।'
मैं भी घुस गया भीड़ में,
एक अदद रेवड़ी की चाह में।
बरसों पहले मिली थी एक,
इसी तरह की एक भीड़ में,
बाँट रहा था एक अंधा,
घूम घूम कर, छू छू कर
अपनों का कंधा।
आखिर गलती हो गई।
अंधे की नज़र चूकीं और
एक रेवड़ी मेरी
झोली में भी गिरी।
जिसका स्वाद
आज तक चख रहा हूँ।
आज बरसों बाद
फिर मौका मिला है।
रेवड़िया समेटने का।
मिलेगी और
ढेर सारी मिलेगी।
क्योंकि अब तो मेरे पास
रेवड़ियाँ लेने के लिये
योग्यता है
अनुभव है और
क्षमता भी है।
सबसे बड़ी बात तो
यह है कि
रेवड़ियाँ बाँटने वाला
अंधा नहीं है।
खड़ा हो गया कतार में,
रेवड़ियों की इंतज़ार में।
लेकिन यह क्या,
बाँटने वाला आया मेरे पास,
एक बार, दो बार नहीं,
दसियों बार।
लेकिन हर बार
वह आता मेरे पास,
देखता वह मुझे
ऊपर से नीचे तक, और
आगे बढ़ जाता।
मेरा नाम उसकी किसी भी
सूची में नामित नहीं था।
खड़े खड़े थक गया,
थक कर चूर हो गया।
लेकिन एक भी रेवड़ी
न मिलनी थी, नहीं मिली।
सोचने लगा,
इससे तो अच्छा था कि
काश!
रेवड़ियाँ बाँटने का काम
अंधों के पास ही
रहने दिया होता।
शायद अंधे की नजर चूकती
और
एक आध रेवड़ी
मेरी झोली में फिर गिर जाती

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