| 
                   अनुभूति में
					विक्रम पुरोहित की रचनाएँ- 
					छंदमुक्त 
					में- 
					औघड़ 
					कविता बचती है 
					खामोशी 
					दो कबूतर 
					बचपन 
					छोटी कविताओं 
					में- 
					पाँच छोटी कविताएँ  | 
                
     
                 | 
                
                   पाँच छोटी 
                  कविताएँ 
                   
                  रात, चाँद 
                  और बदरा ! 
                   
                  रात  
                  बादलों की  
                  सुराही में डूबी है  
                  और बादल है कि 
                  बूँद बूँद कर इकट्ठा चाहते है  
                  खुद को डुबोना रात के रंग में ! 
                  और चाँद... 
                  बेबस सा  
                  ढूँढता किनारा 
                  रात का आँचल पकडे ! 
                  
                  इंतज़ार 
                   
                   
                  इंतज़ार करूँ या बढ़ता रहूँ  
                  लेकर स्मृतियों को साथ  
                  गर हो भी जाए ऐसा कि  
                  टकरा जाएँ  
                  मोड़ पर कही  
                  किन्तु...क्या चल पायेंगे  
                  इस डगर पर पहले से, 
                  हाथो में ले हाथ.... 
                  
                  ख्वाब 
                   
                   
                  ख्वाब परिंदे बन उड़ने लगे है ! 
                  बसेरा था पहले यही  
                  इसी आँगन में कल्पनाओं का,  
                  यही जन्म लेते, साकार होते इसी चारदीवारी में ! 
                  मासूम थे तब अनजान, अरमानों के अंजाम से  
                  समझने लगे है अब भला-बुरा अपना , 
                  चुगते है,आकांक्षाओ-अपेक्षाओं का दाना  
                  मगर छलावा छल, 
                  भर पेट अपना इनसे  
                  उड़ जाते है किसी और बसेरे को  
                  ख़्वाब परिंदे बन उड़ने लगे है.....! 
                  
                  पत्ते सा यह जीवन 
                  ! 
                   
                  टूटन का, भटकन का, मिलन का, बिछुड़न का ! 
                  कभी डोलता-लहराता, 
                  हरित आभा संग, 
                  हंसते-खेलते, 
                  वटवृक्ष पर ! 
                  कभी  
                  खोया हुआ सा, जर्द हो, 
                  जीता अनाम जिन्दगी, 
                  अपने ह्रदय में लेकर, 
                  आँसुओं से सिंची हुई, एक पूरी सदी, 
                  खुशियों की.....! 
                  पत्ते सा ये जीवन अपना ! 
                  
                  मेरा स्वप्न ! 
                   
                  वो धँसता रहा ह्रदय में, 
                  जैसे माटी में बीज स्फुटित हुआ, 
                  पी जल संभावनाओं का, 
                  आज है खिला-महका सा, 
                  देख अपनी दुनिया को, 
                  "मेरा स्वप्न"! 
                  ८ अगस्त २०११  |