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                   अनुभूति में
					विक्रम पुरोहित की रचनाएँ- 
					छंदमुक्त 
					में- 
					औघड़ 
					कविता बचती है 
					खामोशी 
					दो कबूतर 
					बचपन 
					छोटी कविताओं 
					में- 
					पाँच छोटी कविताएँ  | 
                
     
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                  बचपन 
					बाद मुद्दतों के 
					फिर इक रोज़ 
					बनाई थी , किश्तियाँ कागज की ! 
					हर नज़र नन्ही मुस्कुराहटों का लिबास ओढ़े 
					बूढ़े दरख्त मानो फिर से जवां हो गए , 
					और जिस्म कतरा-कतरा 
					बिखर घुलता गया 
					खुशनुमा मंज़र की 
					रंगिनियों में..। 
					 
					वो वक़्त 
					रोज़ गुजरने वाले वक़्त सा नहीं था 
					वो वक़्त.. जो कई सालों 
					पहले गुजर चुका था 
					उसका बचपन था , 
					मेरा बचपन था , 
					जो लौटा था फिर से 
					बस इतना कहने, में ज़िंदा हूँ.....! 
					फिर….! 
					फिर वही रात  
					फिर वही खामोशी  
					फिर निकला चाँद 
					फिर सूर्य ने की खुदखुशी  
					 
					फिर गली-कूंचो ने लपेटा काला लिबास  
					फिर दिन के भटके पंछी को 
					ठिकाने की तलाश  
					फिर कतरा-कतरा चाँद बिखरता-सा  
					फिर नभ सितारों से भरता-सा  
					फिर धीमे-धीमे रात डूबती गहन निद्रा में  
					और फिर... 
					क्षितिज पार आविर्भाव  
					महामेध-ओजस्वी ,अरुणसारथी 
					का  
					फिर सब कुछ पुनः वैसा 
					फिर से पहले जैसा.....! 
					 
					२ जनवरी २०११  |