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तस्वीर गाँव की

बदल गयी तस्वीर गाँव की,
कोई आहट नहीं पाँव की।

गलियारे लगते हैं सूने,
भाईचारा खत्म हो गया,
हर वस्तु के दाम दोगुने,
भूख मिटाना सपन हो गया।

मधुरस नहीं रहा भाषा में,
आवाजे हैं काँव-काँव की।

गाँव हुआ अब शहर-शहर है,
कोठी, बँगले, मॉल बने हैं।
झेल रही है कहर ग्राम्यता,
कब इनके अब दिन फिरने हैं।

आश्रय का अब नहीं ठिकाना,
नहीं रही अब जगह छाँव की।

बैलों की घण्टी की ध्वनियाँ,
और किसानों की टिटकारी,
कहाँ गयी प्यारी मुनियाँ की,
मधुर-मधुर सी वो किलकारी।

लुप्त हो गया जो नव-युग में,
खोज करूँ मैं उसी ठाँव की।

२३ जून २०१४

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