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अनुभूति में सोम ठाकुर की रचनाएँ—

गीतों में-
खिड़की पर आँख लगी
मन जंगल के हुए
प्रेमा नदी
सूर्यमुखी फूल
स्वर की तरंगें
वेला संवत्सरा
हवाएँ संदली हैं

संकलन में-
मेरा भारत- तिरंगा
         राष्ट्र देवता
         वंदन मेरे देश
मातृभाखा के प्रति- राजभाषा वंदन

 

हवाएँ संदली हैं

हवाएँ संदली हैं
हम बचें कैसे
समय के विष बुझे
नाखून बढ़ते हैं

देखती आँखें छलक कर
रक्त का आकाश दहका-सा
महमहाते फागुनों में झूलकर भी
रह गया दिन बिना महका सा
पाँव बच्चों के
मदरसे की सहमती सीढ़ियों पर
बड़े डर के साथ चढ़ते हैं

स्वप्नवंशी चितवनों को दी विदा
स्वागत किया टेढ़ी निगाहों का
सहारा छीन लेते हैं पहरूए खुद
उनींदे गाँव की कमज़ोर बाहों का

ज़रा जाने-
भला ये कौन है जो
आदमी कि खाल से
हर साज़ मढ़ते हैं?
समय के विष बुझे नाख़ून
बढ़ते है

२१ मई २०१२

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