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अपनी धरती
दुखों से दोस्ताना
बंजरों में बहार
यों तो संबन्ध
हों ऋचाएँ वेद की

अंजुमन में-
उम्र कुछ इस तरह
घर में बैठे रहे
तेरी ज़िद
दो ग़ज़लें
धूल को चंदन
बागों में

बादल तितली धूप
मौत ज़िंदगी पर भारी है
सिमटने की हकीकत

 

हों ऋचाएँ वेद की

हों ऋचाएँ वेद की, या आयतें कुरआन की
खो गई इन जंगलों में अस्मिता इंसान की

कैसी तनहाई! मेरे घर महफ़िलें सजती हैं रोज़
सूर, तुलसी, मीर, ग़ालिब, जायसी, रसखान की

कितने होटल, मॉल, मल्टीप्लेक्स उग आये यहां
कल तलक उगती थीं इन खेतों में फ़सलें धान की

इस कठिन बनवास में मीलों भटकना है अभी
तुम कहां तक साथ दोगी, लौट जाओ जानकी

तुम भी कैसे बावले हो, अब तो कुछ समझो नदीम
अजनबी आँखों में मत खोजो चमक पहचान की

अगस्त २०१०

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