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अनुभूति में अमित दुबे की रचनाएँ —

अंजुमन में—
इरादों का
खत में
बज्म थी तारों की
मेरी हर चीज में
समन्दर की लहरों सी

इरादों का

इरादों का बड़ा पक्का रहा हूँ
खुदा का नेक दिल बंदा रहा हूँ

मेरे घर फूल बरसाओ बहारों
कि खारों से बहुत ऊबा रहा हूँ

तिज़ारत दिल का वो करने लगे हैं
हिसाबे -प्यार में कच्चा रहा हूँ

सज़ा दे दी मुझे मेरे खुदा ने
कि तेरे बाद भी जिन्दा रहा हूँ

कि रिश्तों में नहीं है बात अब वो
लगा यों बोझ मैं ढोता रहा हूँ

बगावत कर ली जो मैंने ही घर से
दुखा के माँ का दिल रोता रहा हूँ

कहा उसने तो मैंने जान दे दी
बहुत वादे का मैं पक्का रहा हूँ

फ़साने याद फिर आने लगे वो
मुसलसल रात भर रोता रहा हूँ

अज़ब ही बात थी उसकी गली में
अभी तक मैं वहाँ जाता रहा हूँ

बहुत प्यारी लगी हमको जो चीज़ें
उन्हें पाने को मैं तरसा रहा हूँ

चरागाँ कर लिया हमने भी घर को
अँधेरों में बहुत घुटता रहा हूँ

१० फरवरी २०१४

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