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दिल्लगी
पत्थरों सा दिल
बिखरे हैं जो कचरे

मेरे गीतों में

  स्वस्थ धुओं का सुख

जब धुएँ बीमार नहीं थे
उमरदराज़ लोग धुओं पर ही
पलते थे,
दादी फुँकनी से चूल्हा सुलगाते हुए
धुओं से पेट भर लेती थी
गोइंठे-उपले के अलाव पर
पतीली में दल चुराती हुई
धुओं का सोंधापन उसमें घोलती थी
उसे यकीन था की
धुओं की खुराक
बच्चों को बैदजी से
कोसों दूर रखेगी

धुएँदार रसोईं में
इत्मिनान से बैठ
पाड़े की चक्की का आटा
सानती हुई
बटुली में भात छोड़
बाहर घाम की आहट पर
फूटती कलियों को झाँक आकर
वह दोबारा फुँकनी सम्हालती थी
और चूल्हे में जान डाल
भदभदाती भात निहार
बड़ा चैन पाती थी,
प्रसन्न-मन कई घन मीटर धुआँ
सुड़क-सुड़क पी जाती थी

धुओं ने उसे भली-चंगी रखा
पचासी में भी
नज़र इतनी तेज कि
कहकहे लगाते हुए
एक ही बार में
सुई में धागा डाल देती थी,
दादाजी को दाल-भात परोसते हुए
दो गज दूर से ही
बबुआ के हाथ में अखबार से
सारी खबरें बाँच लेती थी
देस-परदेस का नब्ज़ थाम लेती थी


फुँकनी से आग भड़काती दादी
इतनी झक्क सफ़ेद रोटी पोती थी
कि रोटी के कौर को पकड़ी
माई की अन्गुरियाँ भी
साँवरी लगती थी

धुओं ने उसे संतानबे बरस तक
निरोग-आबाद रखा,
उस दिन भी वह धुओं से नहाई
रसोई से कजरी गुनगुनाते हुए
ओसारे में खटिया पर
आ-लेटी थी,
माई ने उसकी मुस्कराती झुर्रियों में
कोई बड़ा अनिष्ट पढ़ लिया था
और झट बाहर बैद रामदीन को
गुहार आई थी
बैदजी आए
नाड़ी थामे रहे
और दादी मुस्कराहटों के बीच
अपनी देह छोड़ गई


२४ सितंबर २०१२

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