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अनुरोध

हे बादल!
अब मेरे आँचल मे तृणों की लहराई डार नहीं,
न है तुम्हारे स्वागत के लिए
ढेरों मुसकाते रंग
मेरा जिस्म
ईंट और पत्थरों के बोझ तले
दबा है।
उस तमतमाए सूरज से भागकर
जो उबलते इंसान इन छतों के नीचे पका करते हैं
तुम नहीं जानते
कि एक तुम ही हो
जिसके मृदु फुहार की आस रहती है इन्हें
बादल! तुम बरस जाना
अपनी ही बनाई कंकरीट की दुनिया से ऊबे लोग
अपनी शर्म धोने अब कहाँ जाएँ?

९ जनवरी २००३

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