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ढूँढती हूँ

उनको बिसारकर ढूँढ़ती हूँ,
पहर-दर-पहर ढूँढ़ती हूँ।

खाकर ज़हर ज़िंदगी का,
शाम को, सहर ढूँढ़ती हूँ।

अपने लफ़्ज़ों का गला घोंट,
उनमें असर ढूँढ़ती हूँ।

अंतिम पड़ाव पर आज,
अगला सफ़र ढूँढ़ती हूँ।

बर्दाश्त की हद देखने को,
एक  और कहर ढूँढ़ती हूँ।

दीवारें न हों घरों के सिवा,
ऐसा एक शहर ढूँढ़ती हूँ।

रंग बाग़ों का जीवन में भरे,
फूलों का वो मंज़र ढूँढ़ती हूँ।

इश्क की रूह ज़िंदा हो जहाँ,
ऐसी इक नज़र ढूँढ़ती हूँ।

दिल को खुश करना चाहूँ,
वादों का नगर ढूँढ़ती हूँ।

रौशनी आते-आते टकरा गई,
सीधी-सी डगर ढूँढ़ती हूँ।

छोड़ जाय मेरे आस का मोती,
किनारे खड़ी वो लहर ढूँढ़ती हूँ।

जो मुझे डसता है छूटते ही,
उसी के लिए ज़हर ढूँढ़ती हूँ।

जानती हूँ कोई साथ नहीं देता,
क्या हुआ! अगर ढूँढ़ती हूँ।

कौन कहता है कि मैं ज़िंदा हूँ?
ज़िंदगी ठहर! ढूँढ़ती हूँ!

पत्थर में भगवान बसते हैं,
मिलते नहीं, मगर ढूँढ़ती हूँ।

24 सितंबर 2007

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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