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पगडंडी की धार

इसे बनाया नहीं जाता
अपने आप बन जाती है
जरूरत के मुताबिक
ढल जाती है
इस पर चलने वालों के
निशान भी रह जाते हैं
पैरों के तो नहीं मिलेंगे
क्योंकि लोग नंगे पैर
चलते नहीं मिलेंगे।

पगडंडी मंजिल तक पहुंचने का
सबसे छोटा रास्ता होती है
इस पर समय के निशान
आप पढ़ सकते हैं
ये कितने वाल पुरानी है
वैज्ञानिक चाहें तो
इसे भी जान सकते हैं
इनका इतिहास पुराना है
इन्होंने देखा जमाना है
इन पर न चला हो
ऐसा कोई होगा
चलने से इन पर
कोई कब तक बचा होगा ?
अब पगडंडियाँ ही नहीं बची हैं।

पग पग धर कर
पतली सी तिरछी टेढ़ी धार
डंडीनुमा स्वयं बन जाती है
वही पगडंडी कहलाती है
इसको बनाने में
कोई कारीगरी काम नहीं आती है
घास भी इस पर
उगने का साहस नहीं कर पाती है
पुरातन की जीवंत पहचान है
किसी शिलालेख की तरह।

1 दिसंबर 2007

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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