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कितने ज़माने से

कितने ज़माने से वह
एक ही चीज़ बना रहा है
पहले मिट्टी को रोंदकर मुखौटे की शक्ल देता है
फिर उसका साथी उसमें रंग भरता है
सारे मुखौटों का आकार और रंग-रूप एक जैसा
एक ही तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त होती है
सभी के चेहरों से
सभी में उनके भोलेपन की हँसी
और चेहरा जैसे बेवजह हँसता हुआ
शायद खुश आदमी इसी तरह से हँसते रहते होंगे।
आदिम जाति में कोई बनावट नहीं
और अब तो चेहरे कितने बदल गए हैं
खुशियाँ भी लाती हैं हँसी एक क्षण भर के लिए
और इस मुर्झाती हँसी में
होता है भय किसी दूसरी परेशानी के आने का
यह हँसी जैसे बीमारी से तो बचे, लेकिन मौत से नहीं
लेकिन अब वो बेचारा कलाकार
नए साँचे कहाँ से लाए नए आदमी की हँसी के
बड़े सस्ते हैं ये मुखौटे
दस रुपए भी कोई दे दे तो उसका एहसान हो
लगातार बनाता जा रहा है वो मुखौटे
लगातार बदलती जा रही है लोगों की हँसी
वो भी खुद भी इसमें शामिल है।

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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