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अनुभूति में पंकज त्रिवेदी की रचनाएँ

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मैं और मत्स्य कन्या (पाँच कविताएँ)

छंदमुक्त में
अनमोल मोती
झुग्गियाँ
तृषा
दस्तक
नसीहत
निःशब्द
नीम का पेड़
पता ही न चला
पूरा आकाश जैसे
बचपन
बातें
मन या शरीर
सड़क के बीच
सवाल
सुख
हरा आँगन

मैं और मत्स्यकन्या - (पाँच कविताएँ)

(१)

मैं उसे देखूँ
और
घुटन सी होने लगती
इस ओर जीवन, धबकार, गति, संघर्ष
और
जीने की चाह लिपट जाए
हरी चिपचिपाती सिवार की तरह!

सामने ही समंदर, असीम
नया जीवन, फुर्तीलापन और फिर?
सिर्फ छटपटाना...

आपका घर होगा, जाना-पहचाना नाम होगा और
मुहल्ला भी

मेरा भी घर, उसका भी घर,
एक्वेरियम..!


(२)

केसरिया साफा बाँधकर
ढलती हुई शाम के
धूमिल उजास में
डूबता हुआ सूर्य...
स्फटिक सी चमकीली रेत और नदी के
फैले हुए बहाव में
ब्याह रचाकर घर लौटने के बाद
मेघधनु की शोभा स्वागत करती हैं...
उसे देखकर मीठी मीठी ईर्ष्या करती हुई
तैरती नटखट मछलियाँ...!

(३)

पापा को मिलने आई
बेटी,
वेकेशन में बुनती है प्रश्नों का जाल....
पापा
उलझते रहते हैं उन में
यत्न करते हैं छूटने का, और
फँसते रहते हैं लगातार...
पापा, बेचैन-यहाँ
मम्मी-वहाँ
बेटी-यहाँ वहाँ
मम्मी पढ़ाती, सख्त स्वभाव से
कहानी सुनाएँ पापा,
फिल्म, फ़नवर्ल्ड और आइसक्रीम का लुत्फ़
और हिल स्टेशन का आनंद
सिर्फ अट्ठाइस दिनों का फ़रमान
बेटी प्रश्न करती, मौन पापा
वहाँ तो गुस्सा मम्मी का
एक्वेरियम में तैरती हुई
वह पहुँच जाती है एक कोने में
अकेली, तन्हा,
सजल...!


(४)

मैं कौन हूँ और मेरा व्यक्तित्व ?
ऊपर से धधकता ज्वालामुखी
और भीतर में?

अंत तक गहराई में पहुँच जाओगी तुम
तब हाथ लगेगा एक लहराता, शांत,
बरगद की शाखा-प्रशाखाओं की तरह फैला हुआ समंदर!

इंसान कहाँ तक पहुँच पाए, कहाँ स्पर्श करे,
आधारित हैं उनकी कुशलता और वृत्ति पर
ऐसी, अनेकानेक वृत्तियाँ
सिवार की बेलों की तरह लिपट जाती हैं मुझसे
मैं तो समंदर में भी निर्बंध होकर

ऐसे तैरना चाहता था कि
समंदर में ही तैरते जलरंगों को
मेरे लिए मीठी-मीठी ईर्ष्या होने लगे
सिर्फ निछावर होने के लिये मानो होड़!


लगता हैं मैं कुछ ऐसा करूँ,
लोग देखें और बस, हर्षित हो जाएँ...

मगर-
"कुछ" करने की ललक जन्म ले उससे पहले
न जाने कितने उत्सुक बैठे हैं, उसका शिकार करने को
हाँ, नवजात बेटी जैसी "वृत्ति" का चुपचाप,
गला घोंट दिया जाय,
- और फिर
कहा जाए कि हमारे हाथ में क्या है?
सब कुछ ईश्वर की लीला....
फिर वही पंजा कुंकुमवर्ण होकर भले ही रिसता रहे!

ऐसी दो-तरफी वृत्तियों के जाल में से बारबार छूटने का
प्रयास करता हूँ, हमेशा विफल रहता हूँ
कृशकाय हो जाता हूँ
गहरी निराशा में...!

फिर भी "कुछ" करने की ललक
इस जीर्ण शरीर में जगाती है चेतना
फिर, पूरे जोश के साथ खडा हो जाता हूँ
लोग देखते, खुश होते, तालियाँ बजाते
प्रोत्साहित करते मुझे
मेरी सकारात्मक वृत्तियाँ रोएँ-रोएँ में उतरकर
धकेलती हैं मुझे भीतर से
अब मैं तैयार हूँ, मेरे आसपास के लोग
परिवर्तित हो गए हैं भीड़ में...
उन्हें देखकर फूला नहीं समाता, मुझे जल्दी ही
"कुछ करना" है...
जिसका मुझे और आपको है बेसब्री से इंतजार !

अचानक वही भीड़ -
भीड़ की वृत्तियाँ भींच लेती हैं मुझे
और फिर उसी के बीच-दबता, गिरता, ठोकरें खाता हूँ
आँख खुलती है-
समंदर की गहराई में एक विशाल चट्टान पर
पडा हूँ मैं, मानों भगवान विष्णु !
आसपास शीतलता, परम शान्ति,
मन मेरा स्वस्थ है...
मैं धीरे धीरे आँखे खोलता हूँ, निर्मल जल में
तैरती मेरी आँखें मछली बन जाती हैं
आसपास जलरंगों की अदभुत -
मनोहर मायावी
नगरी है और उसमें बिलकुल
अकेला सो रहा हूँ मैं, मानो समूचा कोरा...!

फिर चारों ओर देखता हूँ, वह भीड़ बने इंसान नहीं दिखते कहीं भी
नहीं दिखती उनकी दुष्ट वृत्तियाँ और वह नीली आँखें!

मेरी नज़र, शरीर को घेर लेती है
हरी, कोमल वनस्पति को जीमती छोटी-बड़ी रंगबिरंगी
मछलियों को देखता हूँ...

मेरे हाथ-पैर, कान-नाक, मेरा शरीर धीरे-धीरे
सिकुड़ता है, बस सिकुड़ता रहता है निरंतर...
तब एक मछली मेरे पास आकर मधुर स्मित करती है
मैं खुद को देखकर शरमाता हूँ

तब दूसरी मछली
पहली वाली को धक्का लगाकर मुझे किस करती है
मैं अब "मैं" नहीं और फिर भी जो "मैं" था वो ही
मूलरूप में "मैं" फिर से ज़िंदा हो जाता हूँ
आज मैं समझ पाता हूँ,
मैं तो इंसान नहीं, मछली की ज़ात!


(५)

शायद इसीलिए ही -
खोखली इंसानियत मुझमें से ही छिटकने लगी होगी!
और सारी इंसानी बिरादरी ने इल्जाम लगाया मुझ पर
कि तुम हमसे धोखा कर रहे हो
और मैं सोचता हूँ,
मेरा सुख कहाँ है? मेरी पहचान क्या है?
अभी तो परिवर्तन की लहर ने भिगोया, न भिगोया
ऐसे में दुष्ट वृत्तियों ने बगावत ही कर दी, फिर विचार आया

छोटी सी मछली को पकड़कर स्वाहा कर जाऊँ,
कई प्रयासों के बाद भी विफलता...
मानों शरीर साथ नहीं देता था,
दोनों का अपना प्रभाव था और मैं उसमें
इधर-उधर हिल-डुल रहा था
अचानक एक विशालकाय मछली मेरे पीछे पड़ी
शायद वो मेरा शिकार करने को बेताब थी
मैं बिलकुल बेख़बर,
पहली मछली ने मेरे कान में कहा; "भाग जल्दी,
वो तुम्हें खा जाएगी, तुम्हारे अस्तित्त्व को मिटा देगी"
"इंसान" जैसा डर मेरे शरीर में फ़ैल गया
मैं अपनी अंगभंगिमा के नखरे भूलकर
जलराशि को चीरता हुआ तैरने लगता हूँ
तब -

एक बड़ी सी चट्टान की खोखली जगह में से आवाज़ सुनाई देती है मुझे
मैं अपनी गति रोककर, जल्दी से उस दिशा में
देखते ही पहुँच जाता हूँ
जहाँ वह मछली थी
जिसने मुझे किस की थी, जिसका नाम मैंने
किस मछली रखा है
हम दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा और
मेरे पीछे शिकार करने को तेज़ी से तैरती
वह विशालकाय मछली
चट्टान के साथ टकराती है और कईं टुकड़ों में
बिखर जाती है
किस मछली ने धीरे से कहा मुझसे-
"अरे! इन टुकड़ों में से इंसानी वृत्तियों की बू आ रही है!"

तब मैंने कहा- "मेरी आँखों में ध्यान से देखोगी
तो एक दूसरा समंदर दिखेगा तुम्हें,
उसमें रहते इंसान और मेरे-तुम्हारे जैसी
मछली की जाति में भी ख़ास कोइ फर्क नहीं
हाँ, फर्क है तो सिर्फ इतना कि -
उनमें मछली की रंगीनी है, निर्दोषता है और
निखालिस सरल वृत्ति.. !"
किस मछली ने मुझे फिर से किस करते हुए कहा;
"तुम्हारी बात सही हैं, इंसान और मछली,
एक-दूसरे के पूरक हैं,
आखिर तो दोनों वृत्तियों का ही तो नाम हैं न?
शायद -
मैं उन वृत्तियों को ही पा न सका, उसके विविध
स्वरूपों को पहचान न पाया
और तुम उसे पाने के बाद भी
"मछली" होने से खुद को चंचल
साबित करके छटक गयी ।

ठीक उसी समय -
किस मछली, जो पहले मिली थी,
जिसने उस विशालकाय के जबड़े में समा जाने से पहले
प्यार से भागने के लिए आदेश दिया था
वही मछली, चट्टान से निकली
मैंने उसे देखा, उसने मुझे
हम दोनों ने किस मछली को भी देखा,
वह चुपचाप आगे निकल गई...!

१६ मार्च २०१५

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