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                      अनुभूति में
                      प्रियंकर पालीवाल की रचनाएँ-  
						 
                      छंदमुक्त में- 
						अटपटा छंद 
                      
						इक्कीसवीं सदी की रथयात्रा 
						तुम मेरे मन का कुतुबनुमा हो 
						प्रतीत्य समुत्पाद 
                      
						वृष्टि-छाया प्रदेश का कवि 
						सबसे बुरा दिन  | 
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						प्रतीत्य समुत्पाद 
						 
						भाषा चाहिए, संस्कृति नहीं 
						पूँजी चाहिए, संस्कृति नहीं 
						बहुराष्ट्रीय बाज़ार चाहिए, संस्कृति नहीं 
						भूमंडलीकृत व्यापार चाहिए, संस्कृति नहीं 
						 
						पैंट के साथ कमीज़ चाहिए 
						कमीज़ के साथ शमीज़ 
						आकाश को मापने का हौसला चाहिए 
						इस महामंडी में मिल सके तो 
						चाहिए पृथ्वी पर मनुष्य की तरह 
						रहने की थोड़ी-बहुत तमीज़ 
						 
						सकल भूमंडल की विचार-यात्रा के लिए 
						चाहिए एक यान 
						– हीन या महान 
						प्रतीत्य समुत्पाद की समकालीन व्याख्या के लिए 
						एक अदद बुद्ध चाहिए 
						 
						करघे पर बैठा कबीर व्यस्त हो 
						तो शायद कुछ काम आ सके 
						चरखेवाला काठियावाड़ी मोहनदास 
						आभासी यथार्थ की दुनिया में 
						बहुत मुश्किल है समझना प्रतीत्य समुत्पाद।
						२९ अगस्त २०११  |