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अनुभूति में संतोष गोयल की रचनाएँ -

छंदमुक्त में-
आज का सच
गर्मी का मौसम
चक्रव्यूह
जादुई नगरी में
जो चाहा
बच्चों ने कहा था
मरना
मेरा वजूद
युद्ध
साँस लेता इंसान

क्षणिकाओं में
फैसला
प्यास

संकलन में
गुच्छे भर अमलतास- पतझर

  बच्चों ने कहा था

बच्चों ने कहा था अब वह देश नहीं लौटेगें।
क्या रखा है देश में
मिट्टी कंकर धूल बेइमानी शोर प्रदूषण
और वे रिश्ते
जिनकी नींव में दबा दी गयी थी हमारी आज़ादी
उन सबके बीच वे नहीं लौटेगे
फिर ये भी कि लौटना ही क्यों चाहिए।
ऐसे देश में नहीं लौटेगें हम बच्चों ने कहा था।
उन्होने कहा था,
`हम बेहतर ज़िन्दगी की तलाश में निकल पड़े हैं
नहीं लौटेंगे इस पुरानी सड़ी गली नगरी में।'
असल में
तो उसका गणित हमारे नियत फार्मूलों से अलग था।
खुशहाल ज़िन्दगी का सपना भी उसका वो नहीं था
जो हमने देखा था।
शीशों के महलों में
मशीनी तरतीब में
रोबोट सी न थकने वाली गति में जीना ही
उनकी खुशहाल ज़िन्दगी की परिभाषा थी
जिसमें वे भूल गये थे कि
रिश्ते कितने भी करीबी हों
शीशे की पतली सी दीवार तलक
उन्हें धुँधला देती है
और
गति की तीव्रता पैदा कर देती है वो खाईयाँ
जिन्हे पाट सकने के लिये कोई मिट्टी नहीं होती।
कहा था उन्होने कि वे अब अपने देश नहीं लौटेगें।
वे भूल गये है कि ज़िन्दगी के आखिरी पड़ाव पर खड़े हैं
बुढ़ाते माता पिता जिनकी
आँखे धुँधला गयी हैं
कदम लड़खड़ा गये हैं।
जिन बच्चों के एक एक कदम के साथ कदम मिला कर
उन्होने
खुश होना और रोना सीखा था
जो उनके जीवन की धुरी थे
उनकी आशाओं और आकांक्षाओं का चिराग थे
वही
लेन देन के इस बाज़ार में खरीदार बन बैठे थे
बेहतर जिन्दगी की उन सुविधाओं के
जो बाहरी थीं
सिरफ बाहरी।
नतीजा
सम्बन्धों की नींव में लग गयी दीमक
विरासत में मूल्य बेमानी हो गये।
ज़िन्दगी के आखिरी मोड़ पर खड़े मातापिता
लौट कर उसे कुछ ऐसा दे भी तो नहीं सकते
जिसे खरीदने के लिए वे लौट आएँ अपने देश में।
बच्चों ने कहा था
वे अब नहीं लौटेगे इस देश में
जहाँ
ज़िन्दा दम तोड़ रहे है उसके
जन्मदाता।
 

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