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अनुभूति में संतोष गोयल की रचनाएँ -

छंदमुक्त में-
आज का सच
गर्मी का मौसम
चक्रव्यूह
जादुई नगरी में
जो चाहा
बच्चों ने कहा था
मरना
मेरा वजूद
युद्ध
साँस लेता इंसान

क्षणिकाओं में
फैसला
प्यास

संकलन में
गुच्छे भर अमलतास- पतझर

  मेरा वजूद

कोहरे की घनी चादर में छिप गया था
जो मेरा वजूद
उसे
खोज लेने की तमाम कोशिशें नाकाम हो गयी थीं।
ढेर सी लालटेन जला लेने पर भी
कमरा रौशन ना हो पाता था।
मन पर छाया था
अँधेरा
डर के काले साये ने
निगल लिया था समूचा मुझे।
चीख कर पुकार कर भी
दूर न हो पाता था वह सन्नाटा और भय
जो बिखरा गया था झाझ के पिछोरे सा।
तभी
चट चट चट
पट पट पट
की आवाजों का जादू बिखरा
कलियाँ झाँक उठी सूरज के सातरंगों से
जो दीख पड़ी थीं
कोहरे की घनी मोटी लोहे सी चादर को फोड़ती तोड़ती
ऋतु राज के आने की तुरही बज उठी
एक युद्ध था जो खत्म हो गया था
बज उठी थी फूलों की शहनाइयाँ कहीं दूर
छा गये साये सैंकड़ों रंगों के।
धरती बन बैठी सुहागिन रति सी।
सुहाग के गीतों की गूंज ने गुंजरित कर दिया
कोहरे की घनी चादर के नीचे
खोये मेरे वजूद को।
अपनी पहचान का अजब एहसास था
जो झाँक उठा था
नेस्ट्रिशियम पौपी गुलमोहर सूरजमुखी में।
अजीब बात है
कैसे किसी का वजूद बन जाता है
अचानक धुँधलाता कोहरा
धुँधुआती जलन
फिर बदल जाता है
लाल पीले नीले जामुनी हरे अबीर गुलाल में।
कैसा है ये रसायन जो
शीशे के भीतर से हमारे भीतर उतर जाता है
या फिर हम पिघल कर धारण कर लेते हैं
उसी का रंग रूप।
यही तो सच से रूबरू होना होता है।
 

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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