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अनुभूति में शरद तैलंग की रचनाएँ

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कभी जागीर बदलेगी
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तीन मुक्तक

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नींद
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लाचारी
लेखक ऐसे ही नहीं बनता है कोई 
सिलवटें

अंजुमन में
अपनी करनी
अपनी बातों में
आपका दिल
आप तो बस
आबरू वो इस तरह
इस ज़मीं पर
उस शख्स की बातों का
घर की कुछ चीज़ें पुरानी
जब दिलों में
जो अलमारी में
तलवारें
दिल के छालों
पत्थरों का अहसान
पुराने आईने में
फना जब भी
मेरा साया मुझे
मंज़ूर न था
यारी जो समंदर को
लड़कपन के दिन
समंदर की निशानी

गीतों में
मनवीणा के तार बजे
मेरी ओर निहारो
सीढ़ियाँ दर सीढ़ियाँ

 

आबरू वो इस तरह

आबरू वो इस तरह अपनी बचाने में लगे हैं
घर के दरवाज़ों पर अब पर्दे लगाने में लगे हैं।

जब खड़े न रह सके हम आईने के सामने
कुछ न सूझा बत्तियाँ घर की बुझाने में लगे हैं।

क्यों भला फिर आज ऐसे लोग बैठे हैं वहां पर
मु तों से जिन सभी के चित्र थाने में लगे हैं।

हमने साँसों से ये सीखा रात दिन चलते रहो
रहनुमा ही राह में कांटे बिछाने में लगे हैं।

मन्दिर और मस्जिद के मसले में भले कुछ हो न हो
कम अज़ कम कुछ लोग रब का नाम ध्याने में लगे हैं।

अपनी सब शर्मो-हया जो बेचता बाज़ार में
हमने देखा लोग उसके गीत गाने में लगे हैं।

अपनी कमियों को नज़र अंदाज़ करते थे 'शरद'
दूसरों की ख़ामियाँ सबको गिनाने में लगे हैं।

1  जनवरी 2005


 

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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