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मनुष्य 
पा-पाकर मंज़िल को 
फिर चल देता हूँ आगे 
खोजने नई मंज़िल को, 
अजीब-सा स्वभाव है मेरा 
बस चलता ही जाता हूँ 
रुकता नहीं इक पल को। 
चाँद और अंतरिक्ष मेरे लिए अब हो गए पुराने 
खोज डाले हैं मैने नए कितने और ठिकाने 
सैकड़ो पर्वत, मरुस्थल, नदिया और नाले 
नया नहीं है कुछ भी, ये सब जाने पहचाने। 
अब नहीं है कठिन कुछ 
सब है मेरी मुट्टी में 
कर लिया है मैंने सब कुछ 
अपने ही काबू में, 
सोचा था कभी रुक जाऊँगा 
ले लूँगा विराम 
जुटा लिए हैं साधन सारे 
पर करता न आराम। 
बैठ तो उकता जाता हूँ 
चल दूँ तो रुकना चाहता हूँ 
इसी उधेड़बुन में हरदम 
आगे ही बढ़ता जाता हूँ  
फिर भी नहीं होती है शान्त 
ऐसी मेरी प्यास है, 
और मिल जाए, और मिल जाए 
ऐसी कैसी ये आस है? 
४ जनवरी २०१०  |