| 
ये क्या धुन सवार हो गई 
ये क्यों बैठे-बैठे मचल पड़े 
छोड़के धनी छाँव इस पेड़ की 
ये किस खोज में हो चल पड़े? 
एक यात्रा समाप्त कर के तुम 
चल पड़ते हो दूसरी पर 
थोड़ा रुक जाते सुस्ता लेते 
ये भी क्या बिन रुके चल पड़े? 
दर्पण से झाँकते मैंने ही पूछे थे 
अपने आप से ये सवाल 
खुद को फिर क्या उत्तर देता? 
बचपन से यही तो सुनता आया था 
''आगे बढ़ो, आगे बढ़ो, रुको नहीं, 
चलते रहो, चलते रहो, थको नहीं!'' 
यही पाठ पढ़ाया था सबने 
''रुकना मृत्यु समान है बिल्कुल 
बस चलना मनुष्य का काम है।'' 
मैंने मन में बिठा ली सब बातें 
एक क्षण न लिया विश्राम कभी फिर 
चलता रहा, चलता रहा देखा न आगे पीछे 
झोंक दिये दावानल में दिन और रातें 
न किया पश्चाताप कभी फिर 
चल पड़ा सफ़र पर गाते गाते 
अब यात्रा में ही सुख पाता हूँ 
रुक जाता हूँ तो घबराता हूँ 
अब रोकेगी तो सिर्फ़ मृत्यु मुझे 
तब तक मैं चलता जाता हूँ 
तब तक मैं चलता जाता हूँ। 
४ जनवरी २०१०  |