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अभिव्यक्ति में विजय कुमार श्रीवास्तव 'विकल' की रचनाएँ

जीवन की साध
परिवर्तन
मधुहीन आज यौवन प्याला
मानवता की द्रौपदी
मुझे दिन में भी अंधेरा दीखता है
रात की दुल्हन
सात क्षणिकाएँ
हृदय वीणा को न जाने कौन झंकृत कर रहा है

  हृदय वीणा को न जाने कौन झंकृत कर रहा है

छत्र जीवन की सुनहली रश्मि धूमिल हो चली जब
तरुण मित्रों की मधुर स्मृति भी धूमिल हो चली जब
मातृ पितृ और भ्रातृ ममता आज धूमिल हो चली जब
लुट चुके सर्वस्व जीवन के इसी धूमिल प्रहर में
हृदय अंबर को न जाने कौन मुखरित कर रहा है
हृदय वीणा को न जाने कौन झंकृत कर रहा है।

सृष्टि सागर में अकिंचन बन कर बह चला जब
नील नभ के चाँद सूरज से भी छिप कर बढ़ चला जब
विश्व के काले कलूटे रूप से भी डर चला जब
शून्यता की सरसता से भी मेरा मन भर चला जब
इस तरह संसार के सब भाव से ऊबे क्षणों में
हृदय सागर को न जाने कौन लहरित कर रहा है
हृदय वीणा को न जाने कौन झंकृत कर रहा है।

जगत में ढूंढा बहुत पर नेक सुख मैंने न पाया
छात्र जीवन के अलावा अन्य जीवन मैं न पाया
नियति ढूंढ़ा बहुत पर मधुमास-सा ऋतु मैं न पाया
कर्ममय जीवन से बढ़ कर अन्य जीवन मैं न पाया
सुखद आशा और निराशा के इसी पावन समय में
हृदय मंदिर को न जाने कौन गुंजित कर रहा है
हृदय वीणा को न जाने कौन झंकृत कर रहा है।

किंतु कारण के बिना क्या कर्म संभव है यहाँ पर
औ तमिशा के बिना क्या चाँदनी शोभित यहाँ पर
घोर आतप के बिना तरु बिंब भी सुखकर कहाँ पर
सरस्वती से हीन मानव भी भला मानव यहाँ पर
भटकते इन द्वैत भावों की इसी गोधूलिका में
हृदय दीपक को न जाने कौन ज्योतित कर रहा है
हृदय वीणा को न जाने कौन झंकृत कर रहा है।

धन्य हैं वे जन हृदय के भाव जो पहचानते हैं
धन्य हैं वे जन जो सच्चे मार्ग को भी जनते हैं
धन्य हैं वे जन विहँस कर जो जीवन काटते हैं
धन्य हैं वे जन जो हँसना और हँसाना जानते हैं
हास्य से परिपूर्ण जीवन के इसी परि तृप्त क्षण में
हृदय निर्झर को न जाने कौन नर्तित कर रहा है
हृदय वीणा को न जाने कौन झंकृत कर रहा है।

धन्य हैं वे जन जिन्हें पा मन सुमन है मुस्कुराता
धन्य हैं वे जन जिन्हें लख मन मधुप है गुनगुनाता
धन्य हैं विद्यार्थी वे जो निभाते नेह नाता
धन्य हैं गुरुगण वही जो ज्ञान मणि को है लुटाता
मुस्कुराते और लुटाते जा रहे इस विजन पथ में
हृदय अटवी को न जाने कौन पुष्पित कर रहा है
हृदय वीणा को न जाने कौन झंकृत कर रहा है।

24 फरवरी 2007

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