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आत्मकथ्य
कैसी आग
पूर्णिमा की रात
पृथ्वी–मंगल–युति (२००३) के प्रति
हाँफता हुआ शहर
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क्षणिकाओं में-
विनिमय
काला बाज़ार
उषःपान

हास्य–व्यंग्य में-
नकली
चोर
अपने पराए

संकलन में-
नया साल–अभिनंदन
अभिनंदन २००४

 

हाँफता हुआ शहर

उस दिन
सुबह–सुबह
पहाड़ के नीचे
ऊँचे टीले पर
खड़े होकर
शहर को गौर से देखा
तो गम में डूब गया
देखा –
काले धुएँ की छतरी तले
वह शहर बलगमी कलेजे से
बेतहाशा काँप रहा रहा था ।

कारखाने की
बड़ी–बड़ी चिमनियाँ
बेखौफ धुआँ
उगलती जा रही थी
और भय की मारी बेचारी
सुकुमारी मुटठी–भर प्यारी हवा
पहाड़ की गोद में दुबक आयी थी।
साफ–साफ दिख रहा था
चिमनियों की सुरसा–तले
सारा शहर बेतरह हाँफ रहा था
बेतहाशा काँप रहा था
पनाह माँग रहा था।

२४ दिसंबर २००३

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