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विवेक

हे ईश्वर!
क्या तू ही है इस जगत के विनाश का कारण?
सृष्टि का रचयिता कहलाता है,
अपनी उँगलियों पर नचाता है तू
इस ब्रह्मांड को।
मानवता का उद्घाटक है तू,
शांति का संदेशवाहक।
नहीं सिखाता तू
लड़ना-भिड़ना, मनोमालिन्य।
तू नहीं करता बुराई किसी की।
''ऐ मानव!
बंधुत्व का शिखर पार कर,
सहिष्णुता की सरिता में बह।
मानवता के पंचतत्वों से प्रभायुक्त हो।''
यही है तेरी शिक्षा-दीक्षा।

तूने नहीं किसी धर्म को ललकारा।
नहीं बनाया किसी को ऊँच-नीच।
नहीं बनाई जाति-धर्म, वंश-कुल।
नहीं किया वर्ण-विभेद।
ये सब मानव के ही तो थे खेल!

फिर क्यों इतना कुहराम
तुम्हारे नाम?
हिंसा, आगजनी, लूट-पाट, बलात्कार. . .
सिर्फ़ धर्म के नाम?
कब ललकारा है ख़ुदा ने राम को?
कब दुत्कारा है बाइबल ने
गीता, वेद, और कुरान को?
फिर
क्यों गीता सिर्फ़ हिंदुओं की है?
क्यों कुरान मुसलमानों का?
क्यों हैं मसीह ईसा सिर्फ़ ईसाइयों के?
क्यों हैं नानक सिख भाइयों के?

ऐ इंसान!
तू मात कर बदनाम
ईश्वर, अल्लाह, और ईसा के नाम।
बस, बहुत हो चुकी मार-काट।
अब तो रुक,
ढूँढ़, देख।
कहाँ छिपा है तेरा विवेक?

9 मई 2007

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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