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एक अंतिम रचना
कुछ निशान वक्त के
ख़यालों में
ओस की एक बूँद
गीत गाती
मुट्ठी भर
विस्मृत
स्तब्ध
सनन-सनन स्मृतियाँ
सार्थकता

 

आवर्तन

टेढ़े और तिरछे रास्तों
पर चलती लकीरें
नये, पुराने आयामों से निकल
उन्हीं में ढलती
ये लकीरें
परिधि के किसी
कोने में अटक
बिन्दु को अपने तलाशती
भटकती रहीं।
भटकती रहीं।

फिर देखा
गोल सा सूरज
टूट चुका था।
जेहन में भर चुके थे टुकड़े।
चापों में बँट चुकी थी
रोशनी चप्पा चप्पा।
वक्त में जमी और रुकी ये चापें
आज खड़ी हैं रूबरू मेरे
सिर्फ पत्थर ही पत्थर
दिखाई देते हैं।

आँखें चुभती हैं
जिस्म के हर कोने में।
दबी दबी
थर्राई हुई
इंतजार में तो बस
एक ही कि
कब इन चापों में
बँधी रोशनी पिघले?
लावा बनकर
जिंदगी के चक्के में
कुछ ऐसी घूमे —
बस घूमती ही
चली जाए।

१ मार्च २०१६

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