मौन टूटा छंद 
					में
					जो असम्भव था,
					
					उसे सम्भव किया मैंने।
					तब कहीं ‘सिन्दूर’ का जीवन जिया मैंने
					1
					मैं प्रणय के 
					आदि-क्षण से देह के बाहर रहा
					मौन टूटा छन्द में, जो कुछ कहा गा-कर कहा
					शब्द में, निःशब्द को भी गा दिया मैंने
					तब कहीं ‘सिन्दूर’ का जीवन 
					जिया मैंने
					1
					प्राण हिम-शीतल 
					किया, रवि के प्रखर उत्ताप ने
					काल के सीमान्त लाँघे, शून्य के आलाप ने
					अमृत से दुर्लभ, अतल दृग-जल पिया मैंने
					तब कहीं ‘सिन्दूर’ का जीवन 
					जिया मैंने
					1
					मैं गिरा 
					गिरि-श्रंग से, तो एक निर्झर हो गया
					घाटियों में इस तरह उतरा, कि सागर हो गया
					संक्रमण-सुख को सनातन कर लिया मैंने
					तब कहीं ‘सिन्दूर’ का जीवन 
					जिया मैंने
					४ फरवरी २०१३