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अनुभूति में यश मालवीय की रचनाएँ —

गीतों में-
आश्वासन भूखे को न्यौते
कहो सदाशिव
कोई चिनगारी तो उछले
गीत फिर उठती हुई आवाज है
चेहरे भी आरी हो जाते हैं
दफ्तर से लेनी है छुट्टी
नन्हे हाथ तुम्हारे
प्रथाएँ तोड़ आए
बर्फ बर्फ दावानल
मुंबई
हम तो सिर्फ नमस्ते हैं
यात्राएँ समय की
विष बुझी हवाएँ
शब्द का सच
सिर उठाता ज्वार

संकलन में —
वर्षा मंगल – पावस के दोहे
नया साल– नयी सदी के दोहे

दोहों में —
गर्मी के दोहे

 

कहो सदाशिव  !

कहो सदाशिव कैसे हो !
कितने बदल गए कुछ दिन में
तनिक न पहले जैसे हो

खेत और खलिहान बताओ
कुछ दिल के अरमान बताओ
ऊँची उठती दीवारों के
कितने कच्चे कान बताओ
चुरा रहे मुँह अपने से भी
समझ न आता ऐसे हो

झुर्री–झुर्री गाल हो गए
जैसे बीता साल हो गए
भरी तिजोरी सरपंचों की
तुम कैसे कंगाल हो गए
चुप रहने में अब भी लेकिन
तुम वैसे के वैसे हो

माँ तो झुलसी फ़सल हो गयी
कैसी अपनी नसल हो गयी
फूल गए मुँह दरवाजों के
देहरी से भी 'टसल' हो गयी
धँसी आँख सा आँगन दिखता
तुम अब खोटे पैसे हो

भूले गाँव गली के किस्से
याद रहे बस अपने हिस्से
धुआँ भर गया उस खिड़की से
हवा चली आती थी जिससे
अब भविष्य की भी सोचों क्या
थके हुए निश्चय से हो

घर–आँगन चौपाल सो गए
मीठे जल के कुएँ खो गए
टूटे खपरैलों से मिलकर
बादल भी बिन बात रो गए
तुमने युद्ध लड़े हैं केवल
हार गए अपने से हो

चिड़िया जैसी खुशी उड़ गयी
जब अकाल की फाँस गड़ गयी
आते–आते पगडंडी पर
उम्मीदों की नहर मुड़ गयी
अब तो तुम अपनी खातिर भी
टूट गए सपने से हो

सुख का ऐसा उठा फेन था
घर का सूरज लालटेन था
लोकगीत घुट गए गले में
अपना स्वर ही तानसेन था
अब दहशत की व्यथा–कथा हो
मन में उगते भय से हो

९ जुलाई २००१

 

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