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अनुभूति में ऋचा शर्मा की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
अनन्त यात्रा
एक फुसफुसाहट
दीवार और दरवाज़ा
भय
खाली आँखें
मेरे सपने
मुझे लगता है
रोज़ नयी शुरुआत
सुनो पद्मा
स्वर मेरा
सुन रानी सुन
हर बात नयी


संकलन में-
ज्योतिपर्व– दादी माँ का संदेशा
दिये जलाओ– मुझे भी है दिवाली मनानी
           हे कमला

 

सुनो पद्मा

कौन हो तुम पद्मा
विचरती रहती स्वनिर्मित वन उपवन में
गाँठती रहती अपने विचार
खोलती रहती अपने बन्धन
कौन जाने क्या क्या गुनगुनाती
रूकती चलती झूमती जाती
इतनी कैसे हो मगन
कौन हो तुम पद्मा

कैसे रह पाती हो
इतनी मगन
क्या करती हो कोई जतन
क्या नहीं तुम्हारे जीवन में
दुख का तिनका भी कोई
कैसे संभव है
फिर कैसे सुलझा उलझन अपनी
फिरती हो इतनी निश्चिंत
क्या हो तुम पद्मा

दम मारने की फुर्सत नहीं हमको
और एक तुम हो
नितांत अलबेली पूरी अनबूझी
क्या दे सकोगी कुछ थोडा.
अपना मन उधार हमको
कि जो हमारे किवाड़ हमीं ने
बंद कर डाले हैं
उन्हें खोल डालें
दिन इतने बीत चुके हैं
जंग इतना लग गया उनको
खोले खुलते ही नहीं
सोचा लाओ तोड़ ही दें
पा लें तुम सी स्वच्छन्दता
कि तुमको देखकर ही जाना
गलत थे हम के जिन्होंने बनाईं
कन्दराएँ अपनी खातिर
और फिर उन्हीं के अँधेरों में
सो रहे या कि खो गए
सुनो सुन रही हो न पद्मा

एक खिड़की एक झरोखा
या शायद एक सूराख सा
बनाया तो होगा हमने
कि तब हमें अँधेरों की
आदत न थी
या सूरज से उब चुके थे
अब जो जाके टूटी है
दीवार पुरानी हो कर
और दीख पड़ी हो तुम
गाती गुनगुनाती
सूरज की किरनों से नहाती
कितनी प्यारी लग रही हो पद्मा

कि अब आया है ध्यान
अपने जर्द पड़ चुके रंग का
बेजान झीनी सी पड़ चुकी
चमड़ी पर अब जाके निगाह पड़ी है
सच कहूँ ईर्ष्या हुई है तुमसे
न सिर्फ इस बात से कि
तुम कैसी दिखती हो
वरन इस बात से भी
कि तुम जैसी भी हो
वैसी क्यों हो
वैसी कैसे रह सकी हो
टोको मत बस सुनती चलो
आज मेरी ही सुन लो पद्मा

हम जिन्होंने दीवारें चुनीं
हम जिन्होंने दरवाज़े बंद किए
हम जिन्होंने
हर आती हर जाती हवा का
रास्ता बंद किया
ताकि भटकन को कोई राह न मिले
जिम्मेदारी कर्तव्य
सभ्यता संस्कृति की बेड़ियाँ
हमने अपनी मर्ज़ी से
अपने चारों ओर
गहना समझ समझ
रुच रुच बुनीं
इतराए
उनमें जकड़े अपने अक्सों को देख
हाँ हम इतराए
हैरान मत हो
कान देती चलो पद्मा

ऐसा नहीं है पद्मा
इन बेड़ियों ने
हमें कुछ दिया न हो
जब तक
हमने जानबूझ कर
इनको धारा
मन हमारा इन ने भी सँवारा
भूल बस इतनी हुई
इक गहना रुच जाने पर
दूसरे का मोह जागा
आसानी से पाने का ख़याल जागा
और आसानी से चुना गया अँधेरा
संग अपने प्रगति की विश्वास की
नयी नूतन दिशा तो न लाया था
वह लाया था
सड़ गल चुकी मर्यादाएँ
पुराने पड़े रिवाज़
अँधेरे से
और अँधेरे की ओर खींचते
लुभावने सींकचे
मैं भी उन्हीं में
जकड़ती गयी
क्योंकि भूल चुकी थी
मैं अपने स्व को
आज तुम्हें देखा
ओह आज याद आया
कभी मैं भी थी
तुम जैसी
हाँ तुम जैसी मैं पद्मा
तुम मेरी ही अनुकृति पद्मा

चलो ज़रा तौलें तो
तुम्हारा और अपना
नफा और नुकसान
क्योंकि मन मानना चाहता नहीं
पूरी हार हमारी
पूरी जय तुम्हारी
हो जाए तुला की सवारी
देंखें
काँटे किसकी तरफ झुकते हैं
कर लें यह भी आज
आओ पद्मा

अरे यह क्या हुआ
यह कैसी तुला
यह कैसा काँटा
कहता कभी कहानी मेरी
देता कभी दुहाई तेरी
ओ रे ओ सूरज बाबा
तुम ही न सुलझाओ
ये अनसुलझा हिसाब हमारा
हँस रही हो हँसे ही जा रही हो
इस गम्भीर सवाल पर भी
मत हँसो मत पद्मा
ज्यादा हँसी पीछे आँसू लाती है

अच्छा तो निकली यह बात
न तुम सही न मैं गलत
या यों कहूँ
न तुम पूरी सही
न मैं पूरी गलत
स्वतंत्रता स्वच्छंदता
सुख हरियाली
यह जीवन है
परन्तु सम्पूर्ण नहीं
दुःख आहें मर्यादाएँ रिवाज़
संस्कृति सभ्यता
यही सब कुछ नहीं
अपूर्ण हैं मेरी तुम्हारी मान्यताएँ
ध्यान रहे पद्मा

एक राह तुम्हारी से
जीवन खुशियों में गल जाएगा
एक राह मेरी से
मन रोता रोता घुल जाएगा
बीच की इक राह बनानी है
एक नयी स्वतंत्र सभ्यता उगानी है
जिसमें हो खिलखिलाती
सूर्य की धवल पीत किरणें
जिम्मेदारियों को बतलाता
अलसाने से बरजता अँधेरा
घर हो बरामदे आँगन छत वाला
बड़ी बड़ी खिड़कियों वाला
तब ही होंगीं सुनो पद्मा
एक नूतन पैदावार
जिसकी फसलें होंगीं
कुछ कुछ मुझ सी
कुछ कुछ तुम सी
वे होंगीं मैं और पद्मा
चलो अब चल कर बुनें
यह नया विश्वास
संग आ रही हो
आ रही हो
है न पद्मा
है न पद्मा

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