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एक शहर की दास्तान
१.
पवित्र गुफा से लाई गई
आग
सिर्फ उस शहर के बाशिन्दों के पास थी
जिसकी रोशनी में वे
पार कर जाते थे
बीहड़ से बीहड़ जंगल भी
बेखौफ़
पर, अब
चौराहों के लैम्पपोस्ट ही
उगलते हैं अँधेरा
हर पथिक दूसरे को
प्रेतछाया सा दिखता है
२.
किन्हीं अँधेरी कंदराओं से
निकल कर
शहर भर में फैल गये हैं
कुछ बाज़ीगर
जिनके लिये हमेशा ही
एक अज़ूबा रही थी
आग.
ललचाई नजरों से देखा सबने उसे
और काब़िज हो गये
धीरे-धीरे
इस तरह बँट गई
टुकड़ों में
आग
३.
आजकल
बाज़ीगर ईजाद कर रहे हैं
नये-नये खेल आग के
वे आग खाते हैं
अंगारों पर चलते हैं
पानी में आग लगाते हैं
जमूरे कूद कर दिखाते हैं
आग के घेरे के बीच से
चौराहों पर जुटे तमाशबीन
दाँतों तले उँगलियाँ दबाते है
तालियाँ बजाते हैं
सिक्के उछालते हैं
४.
बस्ती पर
साँझ उतर आई है
कुटिया में बैठे
कबीर ने
इस आग से
हिरदै में अपने
एक जोत जो जलाई है
चहुँदिस उजियारी ही उजियारी छाई है
३१ अक्तूबर २०११
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