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क्या कहूँगा मैं
वो झीनी-झीनी चदरिया
मेरे लिये बुनी थी
कबीर ने।
चाहता था
उसे ओढ़ूं भी
उन्हीं की तरह
और वक्त आने पर
धर दूं
ज्यों की त्यों।
लेकिन,
वक्त का पहिया
कुछ यूँ घूमा, कि
अपनी बढ़ती ज़रूरतों की ख़ातिर
खुद मैं ने ही बेच दिया
चादर को।
कड़ी धूप है।
बदन मेरा
तर है पसीने से
और पोंछने को
एक रूमाल भी नहीं है
मेरे पास।
बेहद शर्मिन्दा हूँ।
राह में
किसी मोड़ पर, जो
मिल गये कबीर, तो
क्या कहूँगा मैं।
१४ फरवरी २०११
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