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अनुभूति में निर्मल गुप्त की रचनाएँ-

नई कविताओं में-
मेरी कविता में
मेरा नाम
मैं जरा जल्दी में हूँ
रामखिलावन जीना सीख रहा है
सुबह ऐसे आती है

छंदमुक्त में-
इस नए घर में
एक दैनिक यात्री की दिनचर्या
एहतियात
गतिमान ज़िंदगी
घर लौटने पर
डरे हुए लोग
तुम्हारे बिना अयोध्या
नहाती हुई लड़की
नाम की नदी
पहला सबक
फूल का खेल
बच्चे के बड़ा होने तक
बयान
बाघखोर आदमी
मेरे ख्वाब
रोटी का सपना
लड़कियाँ उदास हैं
हैरतंगेज़
रेलवे प्लेटफ़ार्म

 

मेरी कविता में

मैं अपनी कविता में
कभी किसी को नहीं बुलाता।
मेरी कविता में
कोई सायास नहीं आ सकता।
इसमें जिसे आना होता है
वह आ ही जाता है
अनामंत्रित।
जैसे कोई मुसाफिर आ बैठे
किसी पेड़ के नीचे
उसके तने से टिककर
बेमकसद, लगभग यों ही।
बैठा रहे देर तक
अपनी ख़ामोशी को कहता सुनाता।

मेरी कविता में
डरे हुए परिदों और
मायूस बहेलियों के लिए
कोई जगह ही नहीं है।
पर अँधेरे में दिशा भूला
हर परिंदा यहाँ आ कर
जब चाहे अपना बसेरा बना ले।

मेरी कविता में
किसी की कोई शिकायत
आद्र पुकार या चीत्कार
या मनुहार कभी नहीं सुनी जाती।
इसके जरिये वशीकरण का
कोई काला जादू भी नहीं चलता।
यह किसी को कुछ नहीं देती
न कुछ माँगती है।
लेन देन का कारोबार इसे नहीं आता।

मेरी कविता में
कुटिल मसखरे अपनी ढपली
अपना राग लेकर नहीं आते।
न वीरता का परचम लहराते
योद्धाओं के लिए इसमें जगह है।
इसमें कोई मस्त मलंग जब चाहे
अपनी धुन में गाता गुनगुनाता
जब चाहे तब आ सकता है।

मेरी कविता में
इतिहास में रखे
नृशंस राजाओं के ताबूतों को
सजाने के लिए जगह नहीं।
अनाम फकीरों की
गुमशुदा आवाजों को सुनने के लिए
इसके कान तरसते हैं।

मेरी कविता में
ऐसा बहुत कुछ है
जो है परंपरागत समझ से बाहर
पर उपलब्ध सच के आसपास।
सच को सच मानने में
बड़ी दिक्कत है।

यकीन करें
मेरी कविता और मेरी जिंदगी में
बित्ते भर का भी नहीं है।

९ दिसंबर २०१३

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