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अनुभूति में निर्मल गुप्त की रचनाएँ-

नई कविताओं में-
मेरी कविता में
मेरा नाम
मैं जरा जल्दी में हूँ
रामखिलावन जीना सीख रहा है
सुबह ऐसे आती है

छंदमुक्त में-
इस नए घर में
एक दैनिक यात्री की दिनचर्या
एहतियात
गतिमान ज़िंदगी
घर लौटने पर
डरे हुए लोग
तुम्हारे बिना अयोध्या
नहाती हुई लड़की
नाम की नदी
पहला सबक
फूल का खेल
बच्चे के बड़ा होने तक
बयान
बाघखोर आदमी
मेरे ख्वाब
रोटी का सपना
लड़कियाँ उदास हैं
हैरतंगेज़
रेलवे प्लेटफ़ार्म

 

सुबह ऐसे आती है

पुजारी आते हैं नहा धोकर
अपने अपने मंदिरों में,
जब रात घिरी होती है।
वे जल्दी जल्दी कराते हैं
अपने इष्ट देवताओं को स्नान।
इसके बाद वे फूँकते हैं शंख,
बजाते हैं घंटे घड़ियाल।
सजाते हैं आरती का थाल,
करते हैं आरती।
गाते हैं भजन,
उन्हें यकीन है कि
इतने शोरगुल के बाद
सुबह आ ही जायेगी।

कमोबेश धरती के सारे धर्म
प्रतिदिन सुबह को औपचारिक रूप से
ऐसे ही बुलाते आये हैं।
और उन्हें कलगी वाले मुर्गे की तरह
सदियों से ग़लतफ़हमी है
कि सुबह उनके सद्प्रयासों से आती है।

उन्हें नहीं मालूम कि
सुबह इस तरह से
किसी के बुलावे पर कभी नहीं आयी।
वह तो बिन बुलाए आ जाती है
कभी भी कहीं भी
जब कोई मासूम बच्चा नींद में,
रात के अँधेरे से डर जाता है।
जब किसी बच्ची का मन
दिन के उजाले में
अपनी गली में इक्क्ल दुक्क्ल
खेलते हुए पूरी धरती को
नापने के लिए मचलता है।
जब रात को खाली पेट सोया आदमी
अपने फर्ज़ी सपनों से बाहर आकर
नए सिरे से जीने का अहद लेता है।

सुबह की पूरी कोशिश रहती है
वह भव्य देवालयों से पहले
जितनी जल्दी हो सके पहुँचे
गंदगी से बजबजाती उन कुरूप बस्तियों में
जहाँ बीमार बच्चों और
सुबकती हुई माओं की
आवाज़ें आती हैं।
और वहाँ के अंधकार को दे दे
निर्णायक मात।

सुबह बड़ी बिंदास होती है
अँधेरे से उसकी पुरानी अदावत है।
वह उसके खिलाफ अपनी लड़ाई
खुद लड़ती है।
और रोज लड़ती है
उसे अपनी लड़ाई में
किसी भी धर्माचारी की
दखलंदाजी कतई पसंद नहीं।

सुबह उनके लिए बेनागा आती है
जिनके पास करने के लिए
कोई प्रार्थना नहीं है।

९ दिसंबर २०१३

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