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अनुभूति में सुनील साहिल की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
उठो भी अब
काश
छोटी छोटी बूँदें
जब तुम आते हो
तुमसे मिलने के बाद
दरियागंज के आसपास

हास्य व्यंग्य में-
जोंक
गुरू की महिमा

 

छोटी-छोटी बूँदें

छोटी-छोटी बूँदें
यों चूमती हैं मेरी देह को
जैसे माँ सहला रही है
मेरे माथे को हौले से
झरनों से पानी
खिलखिलाते हुए
गिरता है
चट्टानों पर
जैसे वह लड़की
चपत लगाकर भाग गई हो
मेरी पीठ पर
और दिखाने लगती है
मुझे अँगूठा जीभ निकालकर
और ये पेड़
हाथ बाँधे खड़े
घूरते हैं मुझे
अजीब सी निगाहों से
कि मैं सहम जाता हूँ
इक मुस्कान को होंठों पर
चिपकाए हुए
बाबूजी की मीठी चपत की छुअन
अब भी मेरे गालों पर
'थप्प' से सुनाई पड़ती है।
ये परिंदे यों मेरी मुँडेर पर बैठ
'गायन-सभा' करते हैं
कि किसी अलसाई सुबह को बहन ने
खेंच ली हो चादर मेरी देह से
और कोसने लगती है मेरी
गुस्साई नज़रें
उसकी जल्दी उठने की आदत को
और मेरा छोटा सा मन
मेरी अँगुली पकड़के कहता है-
'ए वापस चलो ना।'

९ जनवरी २००५

 

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