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अनुभूति में सुनील साहिल की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
उठो भी अब
काश
छोटी छोटी बूँदें
जब तुम आते हो
तुमसे मिलने के बाद
दरियागंज के आसपास

हास्य व्यंग्य में-
जोंक
गुरू की महिमा

 

उठो भी अब

मन में भी एक झरना
बहता है
फैली असीम नीरवता के
किस्से कहता है
कोयल की कूक में भी
सुनता हैं
अपने चेतन का गायन
सफ़ेद रुई सा बगुला
अपनी चोंच डालता है
दरिया के पानी में
और उसके छींटे
पड़ते हैं मेरे भीतर
लताएँ, फूल
डालियाँ और पत्तों ने
कह दी कई अनकही गाथाएँ
और कोई बुद्ध
ध्यानमग्न है ज्यों
नहीं उठेगा अब
भोर होने से पहले
बूढ़े पेड़ों की
लंबी दाढ़ियों को
छू लेता है
मेरा किलकारी मारता मन
उठो भी अब
नया जन्म हुआ है।

१६ मार्च २००६

 

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