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अनुभूति में तरुण भटनागर
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समुद्र किनारे शाम
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बादलों के लिए

बरसाती नाला और आकाश,
हमेशा लड़ते रहते हैं,
बादलों के लिए।
पर अक्सर मैं,
उस लड़ाई को,
गर्मियों में ही जान पाता हूँ,
जब लड़ाई में हारने के बाद,
वह बरसाती नाला,
टीलों, डूहों के बीच,
सूखा सा पड़ा होता है,
गर्म गहरी घाटियों में
और,
मैं सोचने लगता हूँ,
अरे!
इस साल भी।
आख़िर कब तक?

९ जून २००५

 

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