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अनुभूति में तरुण भटनागर
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  बरसों से

बरसों से,
तुम और मैं,
एक साथ लाखों बरसात की बूँदें,
जिनमें से किसी एक को,
बहुत ध्यान से देखने पर भी आँख पकड़ नहीं पाती है।

बरसों से,
तुम और मैं,
लोहे की पटरी पर ट्रेन का पहिया,
लोहे पर लोहा,
चुकता नहीं,
पंचर होकर रुकता नहीं,
एक सी करतल धुन,
एक सा सिद्धांत,
कोई प्रतिवाद नहीं।

तुम और मैं,
दीवार पर एक तस्वीर,
बरसों से इस तरह लटकी तस्वीर,
कि,
आज अगर हटा दी जाए,
तो सताएगा दीवार का बेरंग खालीपन,
सब पूछेंगे तस्वीर कहाँ गई।

बरसों से,
तुम और मैं,
हवा में पत्ते का कंपन,
अकेले का खेल,
सब लोगों से इस तरह छुपा,
कि कोई ध्यान भी नहीं देता,
इतना सामान्य,
और बहुत पुराना।

पर कितना अजीब है,
कि बरसों से,
मैंने और तुमने,
ज़्यादा बातें नहीं कि,
अक्सर हम चुप ही रहे,
अपने-अपने कामों में डूबकर।
क्या मेरे जीवन का खालीपन इसी रास्ते से आया है?
जब हम नये-नये थे,
तब कितना बतियाते थे हम,
तब लगता था,
कभी ख़त्म नहीं होंगी बातें।
पर फिर भी जाने कैसे तबसे आजतक,
नहीं बदल पाया है कुछ भी।
मुश्किल रहा है,
तुमसे दूर रहना,
बरसों से।

९ जून २००५

 

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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