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अनुभूति में तरुण भटनागर
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पुराने एलबम की तस्वीरें

दूसरी चीजों की तरह,
पुराना नहीं होता है,
पुराना एलबम,
वह जैसे-जैसे पुराना होता जाता है,
बदलते जाते हैं,
उसमें चिपकी पुरानी ब्लैक एण्ड व्हाइट तस्वीरों के मायने।
पुराने एलबम में एक तस्वीर है,
जिसमें तीन साल का मैं,
बैठा हूँ,
बुआ की गोद में,
और आज बरसों बाद जब बुआ इस संसार में नहीं हैं,
देखता हूँ उस तस्वीर को,
तो उसमें एक अजीब सा खालीपन लगता है,
एक रिक्तता उतर आई है,
मेरे और बुआ के खिलखिलाते हुए चेहरों पर,
उस तस्वीर में।
लगता है,
बरसों से चुप यह तस्वीर,
अब बोल पाती है बुआ के मरने के बाद,
शायद बुआ ही बोलती हैं,
और तस्वीर चुप रहती है,
मरकर बुआ ने ढूँढा है यह नया तरीका,
उनका रुका हुआ खिलखिलाता चेहरा अब कुछ कह पाता है,
बरसों वह बंद रहा है इस पुराने एलबम में,
कभी लगा ही नहीं वह कहेगा और मैं देर तक उसे देखूँगा,
बार-बार एलबम में वहीं पर रुककर,
जहाँ मैं और वे बेपरवाह खिलखिला रहे हैं।
अक्सर कुछ खोकर ही कीमती होती हैं,
पुराने एलबम की तस्वीरें।
लगातार चलती आई याद,
कहीं पहुँचकर रुक जाती है
उसे फिर ज़रूरत नहीं होती है और चलने की।
चित्र बदल लेते हैं अपना आकार,
वे एकदम से बेजान हो जाते हैं,
या उन्हें समझना पड़ता है,
नए सिरे से,
या वे वह सब कहने लगते हैं,
जिनके बारे में कभी नहीं सोचा था,
लगा ही नहीं था,
कि वह कह सकते हैं ये सारी बातें।
कितना अजीब है बचपन की उन फोटुओं का सच,
हम सब भाई-बहन, माँ-पिता,
एक ही घर में खुश और तृप्त।
मानो उस घर को हम कभी छोड़ेंगे ही नहीं,
मानो हम पूरे जीवन एक साथ इसी तरह रहेंगे,
और यों कभी नहीं होगी उदासी और अकारण की चुप्पियाँ,
मानो इस तरह भाई बहन और माता-पिता होने के मायने,
हमेशा संजीदा रहेंगे,
जैसे वे उस तस्वीर में हमेशा वैसे ही रहने वाले आत्मविश्वासी।
पर अब,
भाई-बहन, माता-पिता होने के अर्थ,
उस तरह नहीं हैं जैसे उस तस्वीर में हैं,
वह घर अब वैसा नहीं है,
बरसों पहले उस घर को छोड़कर हम भाई-बहनों ने बनाई है,
अपनी-अपनी राह,
अब एक अजीब सी उदासी है पिता के चेहरे पर,
तस्वीर में मां का खिलखिलाता चेहरा देखकर याद करता हूँ,
बरसों हो गया,
मां को फिर इस तरह निश्चिंतता से हँसता हुआ नहीं देखा।
छोटा भाई परेशान रहता है अपने भविष्य को लेकर,
वह उसी तरह शरारती है,
जैसा उस तस्वीर में,
पर जैसे उसकी शरारत अब बनावटी हो गई है,
जैसे वह शरारत उसके भीतर से नहीं आई हो,
वह शरारत ओढ़कर खड़ा होता है,
और छुपा नहीं पाता है,
जब वह ऐसा करता है वह मुझे,
बहुत सयाना लगता है,
लगता है एकाएक वह बड़ा हो गया है और मैं उससे छोटा,
पर उस तस्वीर में,
आज भी बना हुआ है वह पुराना घर,
उतना ही जीवंत,
आज का झूठ,
स्मृतियों का बार-बार कुरेदता सच,
एक अजीब सी बेचैनी है,
उस तस्वीर में।
वह तस्वीर बहुत निर्मम है,
वह यादों से भी ज़्यादा तानाशाह है,
वह जरा भी दया नहीं करती है,
मुझे ही हटानी पड़ती है उनपर से अपनी आँखें,
बचाने खुद को उनसे,
वर्ना वे उतर आएँ भीतर,
करने बेचैनी और उदासी का खेल।
एक तस्वीर में,
हम भाई-बहन नदी में नहा रहे हैं,
उपद्रव और शोरगुल करते,
लगता ही नहीं कि यह वही बहन है,
जिसके कभी-कभार आते हैं फ़ोन,
वह बेतरह व्यस्त है अपने घर में,
उसके पास अपने घर की बातों के अलावा अब कुछ बचा नहीं है,
सालों बाद जब मिलते हैं हम,
तो लगता है,
जैसे हम अपरिचित रहे हों,
जैसे नियती है यों मिलना,
मिलकर भी हम नहीं निकल पाते हैं,
अपनी-अपनी दुनिया से,
तब अपनी-अपनी दुनिया पर ही ख़त्म होते हुए,
यह तस्वीर एक कूड़ा बन जाती है,
कूड़े की तरह ही उससे कोई आवाज़ नहीं आती,
उस तस्वीर की पुकार आकारहीन पुकार बन जाती है,
उस तस्वीर का होना,
किसी सच को झुठलाने जैसा होता है।
पर भीतर कुछ है,
जो उसे कूड़ा नहीं मान पाता है,
अक्सर मैं उस तस्वीर को टकटकी लगाकर देखता हूँ,
मैं शायद लिख नहीं सकता जो मैं देखता हूँ।
चाची अब नहीं हैं,
मरने से पहले उन्होंने मुझसे मिलना चाहा था,
मैं भी सोचता हूँ,
काश मिल लेता,
पर वह हो नहीं सका।
पता नहीं उनसे मिलकर क्या बात होती,
पता नहीं स्मृति की कौन सी पर्त उखड़ती,
किस बात पर आती हँसी,
किस बात पर हम उदास होते,
या हमारा रोने को मन करता,
पर यह सब हो ना सका,
और लोग कहते हैं,
वे मुझसे मिलना चाहती थीं,
चाहती थीं मुझे एकबार देखना।
पुराने एलबम में उनकी एक तस्वीर है,
उस तस्वीर में,
आज मैं टटोलता हूँ,
कि उनसे मिलता तो क्या होता?
लगता है,
तस्वीर कह सकती है,
कि वे क्यों मिलना चाहती थीं?
स्मृति का कौन सा छोर उन्हें मजबूर करता था,
मुझे देखने के लिए?
लगता है,
तस्वीर बता सकती है यह सब,
दे सकती है इन प्रश्नों का जवाब।
उन पुरानी ब्लैक एण्ड व्हाइट तस्वीरों में,
मैं छुटपन में जिन लोगों की गोद में बैठा हूँ,
वे आज अवसाद के क्षणों में मेरे कंधे देखते हैं,
तब उन्हें यह सब खयाल भी नहीं आया होगा,
मैं जब,
सुरक्षित और पूरे हक के साथ था,
जब चेतना नहीं थी,
बस उनकी छाँव थी।
यादों से भी ज़्यादा धडकती हैं,
पुराने एलबम की तस्वीरें,
उनमें बाबा का लाड़ भरा चेहरा आज भी है,
बीतते दिन आदतन कुछ भी नहीं कर पाए हैं,
बल्कि बाबा की इस तस्वीर पर उल्टा है उनका असर,
उन्होंने और स्पष्ट कर दिया है वह लाड़,
जिसे देख लगता है,
काश बाबा कुछ और दिन जी जाते,
मैं करता उनसे वे सब बातें,
बातें जो उनकी तस्वीर के साथ आती हैं।
बचपन की जरा सी स्मृति है,
बस ज़रा सी नोक भर यादें,
जिसे मैं जानता हूँ बाबा के रूप में।
उन तस्वीरों में,
मेरे कुछ पूर्वज हैं,
जिन्हें मैंने कभी नहीं देखा,
उनके और मेरे बीच में कुछ बातें और कहानियाँ हैं,
जो सुनी हैं घर के बडे बूढ़ों से उनके बारे में,
एक अजीब सा संबंध है मेरा और उनका,
अनदेखे,
बिन महसूसे का संबंध।
क्या उस जीवन से उनकी कोई उम्मीद थी,
जो उनके रास्ते मुझतक आया और आगे चल रहा है?
एक भ्रम होता है,
जैसे वह उम्मीद उन तस्वीरों से झलकती है।
एक अचरज भी होता है,
कि वे और मैं जुड़े हैं,
सिर्फ बातों और कहानियों से,
सिर्फ,
पर फिर भी जुड़े हैं,
इस तरह,
कि बहुत सहेजकर रखता हूँ मैं उनकी ये पुरानी तस्वीरें,
जब लोगों को दिखाता हूँ उनकी तस्वीरें,
तो वे उसकी पुरातनता पर चकित होते हैं,
और मैं उन्हें सुनाना चाहता हूँ उनकी कहानियाँ,
दिनों दिन वे कुछ ज़्यादा नज़दीक लगने लगते हैं,
बड़ा अजीब लगता है,
अजनबी बिन महसूसे,
बिना यादों वाले अदेखे लोगों की,
तस्वीरों का यों निकट आना।
पुराने एलबम में मेरे कुछ मित्र हैं,
बचपन के दोस्त,
जिनके साथ उन्मुक्त हँसते हुए खड़ा हूँ मैं,
पर आज वे कहीं मिल जाएँ,
तो शायद मैं उन्हें पहचान नहीं पाऊँ,
पर कोई मान सकता है,
यों उन्मुक्त हँसते,
जब कटते नहीं थे दिन उनके बिना,
कि कभी सिर्फ एक प्रश्न ले लेगा उन दोस्तों की जगह,
उनके साथ बेपरवाह बिताए दिनों की जगह,
कि क्या मैं उन्हें पहचान पाऊँगा?
पुराने एलबम की तस्वीरों ने,
पार कर लिया है समय को,
वे स्मृतियों से कूदकर,
बाहर खड़ी हैं,
वे अब बदल रही हैं,
उन स्मृतियों के मायने,
उन यादों के अर्थ,
उन बातों का कोण,
जिन्हें उनमें टटोलती हैं मेरी उँगलियाँ।

१ अगस्त २००५

 

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