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अनुभूति में विजयेन्द्र विज की रचनाएँ-

नई कविताओं में-
आड़ी तिरछी रेखाएँ
ऋतुपर्णा तुम आज भी नहीं आयीं
जुगनुओं अब तुम सितारे हो गए हो
बेचैनी
वृंदावन की विधवाएँ
शब्द तुम


कविताओं में-
अक्सर, मौसमों की छत तले
अगर किसी रोज
अरसे के बाद
आँखें
एक और वैलेन्टाइन्स डे
कभी वापस लौटेगी वो
खोजो कि वो मिल जाए
दस्तावेजों की दुनिया
मुकर गए वो लोग
रंग ज़िंदगी की तरह
लाल बत्तियों में साँस लेता वक्
वह आवाज अक्सर मेरा पीछा करती है

सोचता हूँ

  वृन्दावन की विधवाएँ

अराध्य,
मान कर ही तो उन्होंने भी
की होगी पूजा उसकी

शायद,
यह मानकर की थाम लेगा वह,
यह तेज़ बाढ-सी
जो पुरातन से चली आ रही है
यहाँ, शोषित होने

कभी,
खिली तो एक अध-खिली
और,
कभी भिखारन
तो एक पुजारन बनकर

वह,
दूर बैठा बस रास रचाता रहा
बासुरी की धुन में मगन,
गोपियों के इर्द-गिर्द लिपटा

नहीं, रोक सका है
वह देवकी नन्दन भी
उन विधवाओं को आने से
वृन्दावन की
इन तंग गलियों मे

५ अक्तूबर २००९