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अनुभूति में डॉ. विनोद निगम की रचनाएँ

गीतों में-
अभी बरसेंगे घन
उनको लोग नमन करते हैं
एक और गीत का जनम हो
क्यों कि शहर छोटा है
खुली चाँदनी का गीत
घटनाओं के मन ठीक नहीं हैं
छंदों के द्वार चले आए
टूट गया एक बार फिर
यह क्या कम है
सबकी उड़तीं अलग ध्वजाएँ

 

खुली चाँदनी का गीत

और अधिक इस खुली चांदनी में मत बैठो
जाने कब, संयम के कच्चे धागे
अलग अलग हो जाएँ

वैसे ही यह उम्र
बहुत ज्यादा सहने के योग्य नहीं है
जो अधरों पर लिखा हुआ है
वह कहने के योग्य नहीं है
फिर यह बहकी हवा सिर्फ
बैठे रहने के योग्य नहीं है
और अधिक इस खुली चाँदनी में मत बैठो
जाने कब यह आकर्षण
सारी मर्यादाएँ धो जाए

इस खामोशी में
वैसे ही अस्थिर और निरंकुश है मन
फिर इतना सामीप्य किसी का
झुकी डाल सा सहज समर्पण
भरी नदी के खुले किनारों सा
नम नयनों का आमन्त्रण
और अधिक मनचली चाँदनी में मत बैठो
जाने कब यह आकर्षण
सारी मर्यादाएँ धो जाए

मौसम का यह रंग
स्वयं पर भी कौई विश्वास नहीं है
फिर ये भीगी हुई बहारों के दिन हैं
सन्यास नहीं है
जो स्वाभाविक है
उसको कुछ दूर नहीं है पास नहीं है
और अधिक विषघुली चाँदनी में मत बैठो
जाने कब, चंदन-क्षण,
जीवन भर के लिये तपन बो जाएँ

३० मार्च २००९

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